धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

प्रेम स्वयं का अपवाद हो जाना है

अगर कोई मुझसे कहे प्रेम क्या है? तो निसंदेह मेरे पास कोई कोई उत्तर नही होगा लेकिन मैं उससे इतना अवश्य कहूँगा कि वो जाये और तुम्हें देखकर आये। देखकर आये कि प्रेम साक्षात कैसा दिखता है? बाकी उसने फिर भी पूछा प्रेम क्या है? तो कहूँगा कि तुम्हे आज भी जानने की कोशिश कर रहा हूँ, तुम्हें देखने की कोशिश कर रहा हूँ। जिस दिन देख लूँगा सम्पूर्ण जिस दिन जान लूँगा पूरा तुम्हे जिस दिन समझ लूँगा शायद एक उत्तर होगा मेरे पास। बाकी अभी तो तुम्हें जानने का सफर जारी है। और उसी सफर में मुझको लगता है कि प्रेम में इंसान इंसान नही होता वो स्त्री होता जाता है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि पुरुष के जीवन का प्रेम एक अंग है लेकिन स्त्री का सम्पूर्ण अस्तित्व है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि स्त्री का ह्रदय प्रेम का रंग मंच है। और वो स्वयं पारस की तरह होती है क्योकि जिसे स्पर्श करती है उसे प्रेम कर देती है वो प्रेम करती नही बल्कि प्रेम में बसती है।शायद इसीलिए स्त्री जितनी शक्ति है उतनी ही प्रेम की मूर्ति है। जितना पुरुष प्रेम शब्दो मे बयाँ कर पायेगा उतना एक नारी मौन में स्पष्ट कर देगी। या कहे नर का प्रेम सतत है मगर जीवन की तरह धीरे धीरे वही नारी का प्रेम असीमित है किंतु मृत्यु की तरह कभी कभी। इसके अतिरिक्त जब जब जीतने की बात आई तो पुरुष ने ज्ञान धर्म तर्क ग्रंथ के सहारे युद्ध जीते सागर जीते देश जीते आसमान जीता धरती जीती और अंत मे स्त्री ने प्रेम से पुरूष को जीत लिया। शायद इसलिए कमियाबी हुई स्त्री पुरुष को जीतने में कि प्रेम स्त्री हो जाना है।
हर पुरुष स्त्री होते है आधे आधे क्योकि हर पुरुष में होती है आधी स्त्री अर्थात हर पुरुष के अंदर अर्ध भाग स्त्री का होता है और हर स्त्री के अंदर पुरुष का।हालांकि इस बात पर बहुत से बुध्दि जीवी हँसेंगे क्योकि उन्हें ये भी काल्पनिक साहित्यिक कथन लगेगा लेकिन ये बात वैज्ञानिक रूप से भी उतनी ही सत्य है जितनी यथार्थ में है। साहित्य में तो बस लोगो ने स्वीकार की है। क्योकि साहित्य में विज्ञान भी है अध्यात्म भी मनन भी औऱ चितन भी तभी तो विज्ञान कहता है ह्रदय का काम सिर्फ एक पम्प से बढ़कर कुछ नही जबकि साहित्य जानता है बहुत से गूढ़ रहस्य जो अछूते है विज्ञान से जैसे अर्ध होने की बात या शिव जी के अर्धनारीश्वर रूप की बात विज्ञान को कल्पना लगती थी लेकिन आज हर कोई मानता है। वैसे ये तथ्य पूर्णतः सत्य है वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी बस इसे नया नाम दे दिया है वंशानुगत के नियम नाम से मेडल ने जिससे हम जानते है कि 23 जोड़े होते है गुणसूत्रों के मानव में जिनमे 23-23 गुण सूत्र नर मादा के जुड़कर जीवन का निर्माण करते है। बस इस तरह ये तो स्प्ष्ट है जन्म से ही हर व्यक्ति में अर्ध पुरुष औऱ अर्ध स्त्री होती है। इसके अतिरिक्त साहित्य भी यही कहता है कि हर मानव के अंदर उसका दायां भाग नर का होता है जबकि वाम भाग नारी का। नारी का वाम भाग इसलिए होता है क्योकि भावनाएं जन्म लेती है हमेशा ह्रदय से कोमलता से औऱ मानव का वाम भाग होता है ह्रदय वाला। औऱ ये भी बात अटल सत्य है कि नारी भावनाओं का जजीरा है कोमलता का पिटारा है और भावों का महासागर। इस बात को हम यूँ भी समझ सकते है कि असल जीवन मे प्रेम तो स्त्री होना ही है क्योकि सबको फिक्र रहती है पानी पीने की लेकिन एक मटक सिर्फ माँ ही भरती है फिर इसके बाद भरती है पत्नी और फिर उसके बाद भरती है बेटी मतलब मटका रूपी संसार मे जल रूपी पानी को भरती सदा स्त्री ही है और यूँ वो मटका हो जाता है स्त्री अर्थात प्रेम स्त्री हो जाना है।क्योकि प्रेम ‘मैं नही आप’ इस भावना का अनुयायी है। वो स्वयं नही है मैं नही बल्कि तुम में जीता है हम में जीता है।
इसके अलाव ये भी सत्य है कि “एक नारी गुलाब की पंखुड़ी सी कोमल है और पुरुष पाषाण सा मजबूत लेकिन एक स्त्री सदा आकर्षित हुई है पुरुष के भावुक पक्ष से औऱ एक पुरुष स्त्री के मजबूत पक्ष से जो समान समान में आकर्षण होता है उस सिद्धान्त की पुष्टि तो करता है साथ ही ये भी स्पष्ट करता है एक नारी हमेशा खोजती है एक पुरुष में अपनी खोई हुई नारी को औऱ एक पुरुष अपने पुरूषार्थ को।
लेकिन प्रेम में इतना अवश्य है कि जो प्रेम में पड़ जाता ये वो प्रेम हो जाता है जब तक आकर्षण होता है तब तक पुरुष पुरुष होता है लेकिन जब प्रेम का आगमन होता है तो प्रेम एक पुरुष को स्त्री में तब्दील कर देता है। प्रेम इस बात को नाकर देता है कि ‘पुरुष होने में थोड़ी सी पशुता होती है, जिसे पुरुष इरादा करके भी नही हटा सकता। यही पशुता उसको पुरुष बनाती है। वैसे तो ये धारण विकाश के क्रम में पुरूष को स्त्रियों से पीछे दिखता है। लेकिन तोड़ भी है प्रेम क्योकि जब नर प्रेम से भर जाता है जब वो पूर्ण विकास कर लेता है तो स्त्री हो जाता है। वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया इन्हीं पर मानवता टिकी है ।यही स्त्री गुण है। यूँ एक बात तो स्प्ष्ट होती है कि प्रेम पुरुष के अंदर की स्त्री को जाग्रत कर देता है।
अतः एक बात तो स्प्ष्ट लगी मुझको प्रेम में कि, प्रेम में पड़कर पुरुष बिल्कुल कोमल हो जाता है परंतु प्रेम से पूर्व बिल्कुल पाषाण। एक स्त्री ही है जो पुरुष को आधी सृष्टि को पाषाण होने से बचा सकती है। एक पुरुष को यदि प्रेम करना है तो उसे चाहिए कि वो प्रेम करे और थोड़ा सा स्त्री हो जाए क्योकि पुरुष का पुरुष बना रहना सदैव दुखदाई है प्रेम के लिए। बाकी मैं अपनी कहूँ तो एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि- “उसके प्रेम में मैं सबसे छिपता बचता एक प्रेम पत्री हो गया हूँ ।
सरल शब्दों में कहूँ तो प्रेम में पड़कर एक स्त्री हो गया हूँ।”
जी हाँ प्रेम पत्री जो हमेशा समाज से छिपती है हमेशा ये चाहती है कि वो दिखे न हो और यही चाहता है हर प्रेमी जैसे समाज कहता है एक रिश्ता हो जो भले ही न हो बस दिखता रहे सभी को जैसे कि पति पत्नी और वही आत्मा कहती है एक रिश्ता जो जो भले ही न दिखे लेकिन हो जैसे कि प्रेमी । अर्थात प्रेम हमेशा ये चाहता है कि उसे इस प्रकार किया जाए कि प्रेम शब्द का जिक्र तलक न हो। या चूमा इस प्रकार जाए कि हम समझ ही न पाए कि चुम्बन था या मेरे ही निचले होठो ने औचक ऊपरी को छू लिया। और यही कारण है कि हर स्त्री होठों के चुम्बन की वजह माथे के चुम्बन को ज्यादा पसंद करती है। और जो स्त्री पसंद करती है वही प्रेम होता है। एक पुरुष को चाहिए कि वो एकांत में बिलखती स्त्री को जान सके क्योकि अगर वो ये नही जानता तो प्रेम नही जानता या हम कहे प्रेम पुरुष के लिए स्वयं के स्त्रीत्व को प्रकट करना है। औऱ स्त्री के लिए अपने पुरुषत्व को जीवित रखते हुए स्त्रीत्व को कायम रखना है । इसमें स्त्री और पुरुष दोनों का ही विकाश निहित है।क्योकि “पुरुष एक पथ्थर से बढ़कर कुछ भी नही औऱ एक स्त्री इस पथ्थर के बिना क्योकि स्त्री को महान बनाता है उसका ये पथ्थर होना ही उसका पुरूष होना ही औऱ ठीक इसी प्रकार एक पुरुष को उसका स्त्री होना”
सरल शब्दों में कहूँ तो प्रेम का मतलब एक स्त्री के लिए है पुरुष के बाद हो जाना और एक पुरुष के लिये स्त्री हो जाना या कहे स्वयं का ही अपवाद हो जाना

ऋषभ तोमर

अम्बाह मुरैना