कविता

युग

युग बदल रहा है
समय के साथ साथ युग पर भी
आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ रहा है।
माना कि परिवर्तन सृष्टि का नियम है
पर इस नियम की आड़ में हम
बेलगाम हो जाएं अच्छा तो नहीं,
अपने रीति रिवाज संस्कार भूल जाएं
अपनों का अपमानित उपेक्षित करें
यह भी जरूरी तो नहीं।
रीति रिवाज, संस्कारों या परंपराओं की
अपनी अलग ही अहमियत थी, है और रहेगी।
रिश्ते नाते, मान सम्मान को ठोकर मारकर
भला हम क्या पा सकते हैं?
इतना जरूर है कि अगली पीढ़ियों से
जो हमने आज किया या कर रहे हैं
सूद ब्याज समेत पाने को तैयार रहें।
क्योंकि युग सिर्फ हमारे लिए ही नहीं बदल रहा
हमारी औलादें भी हमको यही बताएंगी
युग परिवर्तन के नाम पर
हमको किसी कोने में ढकेलती
जरुर नजर आयेंगी,
युग परिवर्तन का सबक
हमको, आपका जरुर सिखाएगी।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921