कविता

जी कैसे रहा है

आपने तो पढ़ा नहीं
पढ़ा तो शायद पल्ले नहीं पड़ा,
वरना यूं मुस्कुरा नहीं पाते,
आँख से झलक जो आते आँसू
आप उसे रोक भी नहीं पाते।
वो शब्द नहीं शूल से हैं
कलेजे को चीर रहे हैं
नश्तर के बाद भी
रुधिर तो नहीं बहता,
पर उस दर्द को सहना
इतना आसान भी नहीं होता।
जाइए जरा पूछिए उससे
जिसने उस शब्द को सिर्फ गढ़ा नहीं
एक एक शब्द पलों में जिया भी है,
जिया भी तो ऐसा की पत्थर बन गया
पत्थर भी ऐसा जिसका कलेजा फट गया।
क्या कहूं, कितना कहूं, कैसे कहूं
मैंने तो सिर्फ पढ़ा भर है
तो आज तक रो रहा हूं,
सोचो भला! जो उन शब्दों में जी रहा है,
आखिर वह जी कैसे रहा है,
जी भी रहा है या फिर
तिल तिल कर मर रहा है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921