कविता

सरिता और सागर

सरिता और सागर का संगम
है जैसे स्त्री पुरुष का संगम
नदी शांत लज्जामय
समुंदर में उन्माद आवेग
सरिता सागर में समर्पित होना चाहती है
सागर उसे अपने आगोश में लेने के लिए बैचेन
नदी समा जाती है सागर में
मिटा देती है अस्तित्व अपना
और सागर कहलाने लगती है
नारी भी तो यही करती है
अपने अस्तित्व को भूल
पुरुष के नाम से जानी जाने लगती है

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020