कविता

वर्षा ऋतु की आई बहार

वर्षा ऋतु की आई बहार, प्रकृति ने किया अद्भुत श्रंगार
अवनि ने ओढ़ी धानी चुनरी, पहना इन्द्रधनुष का हार

बूँदों की टिप टिप पड़ी फुहार, फिजां में गूँजा मेघ मल्हार
बादल उमड़ घुमड़ नृत्य करें, सूरज से लुकाछिपी का खेल करें

बहते झरने झर झर झर झर, चहुँदिशि खिल उठा परिवेश
यूँ लगे प्रकृति ने झूम झूम, लहराये अपने सुन्दर केश

नदियों में छाया नव यौवन, कुछ उफनाती कुछ मदमाती सी
बेताब हैं सागर से मिलने को कुछ बल खाती कुछ इतराती सी

पीहू-पीहू कर बोले पपीहा, कुहू कुहू कूके कोयल
टर्र टर्र टर्राये दादुर, संगीत बिखेरे निशा में झींगुर

तीज त्योहार की झड़ी लग गई, झूले पड़ गये अम्बुआ की डार
बहू-बेटियों का हुआ आवागमन, पकवानों का लगा अम्बार

इतना खुशगवार मौसम है, चलो कहीं सुदूर सैर कर आवें
प्रकृति की सुन्दर छटा निहारें, मन से फिर बच्चा बन जायें।

— सुधा अग्रवाल

सुधा अग्रवाल

गृहिणी, पलावा, मुम्बई