कविता

प्रकृति की अनुपम छटा मेरे गांँव में

प्रकृति की अनुपम छटा मेरे गांँव में,
याद आ रही है मुझे ! अपने गांँव की,
ले चल मुझे! उसकी गोद में,
कोलाहल से दूर ,पीपल की छांव में,
सुकून के पल बिता लूंँ अपनों के बीच में ,
प्रकृति की अनुपम छटा मेरे गांँव में ।

जहां प्यारा – सा आयताकार में घर है हमारा,
बड़े – बड़े कमरे, बड़े बरामदे, बड़ा – सा आंगन,
मेरे द्वार की शोभा बढ़ाता है,
और सब की मीठे पानी से प्यास बुझाता ,
जिसको अंग्रेजी में कहते हैं वेल
पर, मुझे कुआंँ कहना ही भाता,
सदन के सामने द्वार से लगा
छ: बीघे आम की मीठी बगिया
आंँख बंद करके खाऊंँ लगे न खट्टा,
मेरी इसी बगिया में द्वार के सामने प्यारा – सा शिवालय,
जिसमें मेरी चाची माला जाप किया करती थीं,
दूसरे छोर हरा– भरा खेत, उससे लगा तालाब,
सुबह –शाम देखते ही बनता,
प्रकृति की अनुपम छटा मेरे गांँव में,
ले चल मुझे! गांँव की ओर।

सोचती हूंँ कभी – कभी
मेरा घर हम सब का गांँव,
बसती थीं हम सबके प्राण उसमें,
हम सब की आवाजें गूंँजती थीं कोने – कोने,
हम सब मिलकर पले बढ़े जिसमें
आज भी ! अकेली !
बाट जोहती है हम सबके आने की,
कुछ भी कमी ना है, फिर भी लगता है मुझको!
पश्चात संस्कृति की हवा ने बिखेर दिया हम सबको,
घूम आती हूंँ देश-विदेश,
क्षणिक ही मुझे अच्छा! लगता
पर,
जो आनंद झरोखेदार मड़हा में एक साथ हम सबको मिलता
हंँसते लोट–पोट हो जाते
वह पीवीआर में कहां ?
प्रकृति की अनुपम छटा मेरे गांँव में
ले चल मेरे नाथ! मुझे गांँव की ओर ,
मेरा गांँव है बहुत सुंदर।

— चेतना चितेरी

चेतना सिंह 'चितेरी'

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