कविता

शक

मैंने कविता रचनाएं छंद आलेख चुराए नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करो
मैंने किसी को प्यार मोह माया गबन में फंसाया नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करो
मैंने किसी का ग्राहक क्लाइंट नौकर सेवक खींचा नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करो
मैंने किसी को में हृदय आखों से बुरी नज़र से देखा नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करो
मैंने किसी की बुराई, चुगली, चोरी की नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करो
मैंने किसी की आयकर, जीएसटी, पुलिस को गुप्त जानकारी दी नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करो
मैंने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे चर्च में सिर झुकाया नास्तिक नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करो
मैंने गलतियां अपमान गलत कार्य किए नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करो
मैंने किसी का दिल दुखाया नहीं धोखा दिया नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करो
मैंने किसी भी शक के जवाब में सफ़ाई दी नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करो
मुझे पता है तुम्हारी शक की बीमारी कभी उतरेगी नहीं
हां फिर भी मुझ पर शक करोहां फिर भी मुझ पर शक करो
हां फिर भी मुझ पर शक करो
— किशन सनमुखदास भावनानी

*किशन भावनानी

कर विशेषज्ञ एड., गोंदिया