कविता

व्यथा वर्तमान की!

भारतीय संस्कृति, संस्कार,
प्रेम, भाईचारा, शिष्टाचार,
भुलायें अपने आचार-विचार,
टूट रहे हैं संयुक्त परिवार।।
‘मैं’ ‘हम’ से जुदा हो गया,
अपने आप में सिमट गया,
परवाह नहीं अपनों की भायी,
स्वार्थप्रेरित जिंदगी हो गयी।।
सुखदुःख के साथी थे,
एक दूजे के लिए जीते थे,
मुस्कुरातें, खुशियां बांटते,
दुःख की घड़ी में हौसला देते।।
पाश्चिमात्य अनुकरण किया,
फटी जीन्स पहन इतराया,
उत्सव, मेले, मेल-जोल नहीं,
परिवार में सामंजस्य नहीं।।
कौन अपना, कौन पराया?
प्रेम की गंगा बहती नहीं,
स्नेह दीप आलोक ढूंढे मन,
टूटते परिवार की व्यथा मौन।।
जीवन हो चहकती बगियां,
भ्रमर गूँजन, इतराये तितलियां,
भांति-भांति सुरभित पुष्प खिले,
सुख, समृद्धि, परमानंद मिले।।
साथ साथ सब मिलजुल रहें,
प्रेम रस धार निर्मल पावन बहें,
हो संयम, समर्पण, शुभ भाव,
एकता से संबल, प्रेम, सद्भाव।।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८