लघुकथा

खुशी वाली “की”

कितना खूबसूरत जीवन था उसका. खुशियों से वह चहकती-महकती रहती थी और अपने घर-परिवार, संगी-साथियों को भी चहकाती-महकाती रहती थी.
बहुत प्यार करने वाला पति, मान-सम्मान देने वाले बहू-बेटे, हर सुविधा से संपन्न उसका घर-परिवार, किसी चीज की कमी नहीं, खुशी के लिए इससे ज्यादा चाहिए भी क्या!
अब भी सब कुछ वैसा ही था, पर उसका मन ही बुझ गया था. हर समय उदास रहना, लैपटॉप में घुसे रहना उसकी नियति बन गया था. ज्योति से जगमग लैपटॉप भी अब बुझा-बुझा सा लग रहा था. उसे टाइप करने में दिक्कत आने लगी थी. संगीता ने सोचा शायद मेरी नजर ही कमजोर हो चली है, फिर भी लैपटॉप छूटता नहीं था और न उदासी ही उसे छोड़ रही थी.
इस बार होली के दिन भी वह बुझी-बुझी सी थी और हमेशा होली में मस्ती से रंग लगाती, झूमती-नाचती रहती थी.
लैपटॉप में आज न जाने कौन-सी “की” दब गई थी, अचानक वह जगमग करने लगा. संगीता डर गई, कि अब न जाने क्या हो गया.
अचानक उसे याद आया कि न जाने कब लैपटॉप की रोशनी वाली “की” दब गई थी और वह बुझ-सा गया था!
“मेरी भी शायद खुशी वाली “की” दब गई है, इसलिए उदासी ने घेर लिया है.”
बस खुशी वाली की ऑन करने की देर थी, कि पहले जैसी मस्ती से रंग लगाने, झूमने-नाचने वाली संगीता बन गई थी.
“खुशी वाली “की” कभी भी ऑफ मत होने देना.” उसने हमेशा के लिए मन को ताकीद कर दी थी.
— लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244