कविता

घर है तुम्हारा

संँभाल लो ! घर संँवार लो !
घर है तुम्हारा |
बड़े नाजुक होते हैं दिल के रिश्ते,
तुम इन्हें निभा लो!
धीरे – धीरे बंद मुट्ठी में रेत की तरह फिसल जाएगा,
मन में प्रायश्चित के सिवा कुछ भी नहीं बचेगा ,
अपनों से कैसा शिकवा ?
तुम्हारा है परिवार ,
तुम इसे बेगाना न समझो !
एक दूसरे से प्रेम कर लो!
चार दिन की है जिंदगानी ,
खाली हाथ आए हैं खाली है जाना
सब कुछ धरा पर रह जाएगा ,
सामंजस्य बिठा लो !
मायके से ज्यादा ससुराल है प्यारा ,
अपना के देखो  तुम एक बार ,
प्रेम करते हैं सभी तुमसे,
थोड़ा मान  – सम्मान इन्हें दे कर देखो,
मोम की तरह हृदय है इनका,
तुम इनकी भावनाओं से खेलना छोड़ो !
संँभाल लो! सँवार लो ! घर है तुम्हारा |
— चेतना प्रकाश चितेरी

चेतना सिंह 'चितेरी'

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