कविता

मायावी बगुलों का स्वाँग

मद-मस्ती के साथ
चहल कदमी करते हैं बगुले
जब किसान
खेत में
हल चलाता है,
पानी देता है,
और
खरपतवार निकालता है,
बगुले हरदम रहते हैं
इसी फेर में
कि
कहीं कुरेदा हुआ कोई कीट
आ जाए उनकी नज़र में।
इसी तरह होले-होले
बगुले
डग भरते रहते हैं
किसी न किसी के पीछे
‘शालीन’ होकर,
कुछ न कुछ भक्ष्य
बिना मेहनत के
मिल जाने के फेर में।
यों ही गुल खिलाते रहे हैं बगुले
खेतों से लेकर पोखरों तक
बस्तियों से लेकर जंगलों तक
नदी-नालों से लेकर तालाबों तक
लोकपथ से लेकर राजपथ तक,
मुफ्तखोर बगुलों के लिए
नहीं होती कहीं कोई वर्जना,
इनके लिए
न कोई दायरे तय हैं, न मर्यादाओं की कंटीली बाड़,
घनघोर स्याह चरित्र से बेखबर
भोले-भाले और भ्रमित लोग
कभी नहीं जान पाते
इन धवल बगुलों के मनोमालिन्य
और काले कारनामों भरे बहुरुपिया स्वाँग को,
पुरानी से लेकर वर्तमान पीढ़ियों तक को
ये ही ये नज़र आते हैं हर बार हर ओर
कभी बिजूकों
और कभी खुदगर्ज लोमड़छाप बुद्धिजीवियों के रूप में,
सदियों से चला आ रहा है यही कुचक्र
होता है केवल रूपान्तरण
बाकी सब कुछ वही का वही।
जाने कितने ही जन्मों से
इसी तरह होता रहा है
उन्मुक्त प्रजननजन्य
अनचाहा महाविस्फोट

इन मुफ्तखोरों का।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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