कविता

अब नहीं दिखते

अब नहीं दिखते बच्चों के कोहनी घुटने छिले हुए,
न कभी पगडंडियों पर फिसल जाते हैं बच्चे,
पहले की तरह स्कूल पैदल जाना नहीं होता अब,
बसें व रिक्शे घर-द्वार पर लेने आते हैं,
शाम को नियत समय पर छोड़ जाते हैं,
एक धुरी से बंधी दिनचर्या हो गई है अब
हम जब स्कूल जाते तो हफ्ते में एकाध बार गिरना तो तय होता,
कोहनी और घुटनों के दर्द को सबसे छिपाना पड़ता,
बिना दवाई मरहम भी चार दिनों में दर्द फुर्र हो जाता,
खेलने के लिए खेल के मैदान नहीं रहे,
न लुका-छिपी, न पिठू से वे खेल रहे,
खुद को आज जरा सी चोट लगी तो परिवार में मरहम के लिए अफरा तफरी मच गई,
मैंने कहा अरे बचपन से घुटनों के छिलने का अभ्यास है,
इतने नाज़ुक नहीं हुए अभी कि जरा सी चोट पर टिंचर स्पिरिट  की जरूरत पड़े,
नई पीढ़ी को फिर भी लगा कि मैं बहुत जख्मी हूं
उन्हें भी तो अपने हमजोली के घुटने कोहनी छीले हुए नहीं दिखते।।
— रोमिता शर्मा ‘मीतू’ 

रोमिता शर्मा "मीतू"

करसोग, हिमाचल प्रदेश