धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

अधर्म ही है पराए पैसों से दान-धरम

रोजाना कोई सा धार्मिक कार्यक्रम हो, कथावाचकों की कथाएं हों अथवा सत्संग। या कुछ-कुछ दिनों में आते रहने वाले पर्व-त्योहार, उत्सव, मेले-ठेले, यज्ञ, अनुष्ठान, मन्दिर, मूर्ति और शिखर प्रतिष्ठा, भण्डारा आदि हो या और कुछ।

            हर कहीं इनका दिग्दर्शन साल भर होता रहता है। दस-पाँच दिन हुए नहीं कि कोई न कोई आयोजन। अपने आस-पास ऐसे कई-कई आयोजनों से भले ही ऊपर से लगता है कि हमारा इलाका धार्मिक होता जा रहा है लेकिन इसके पीछे छिपे अधर्म की पड़ताल की जाए तो इसकी असलियत और तथाकथित धर्मभीरूओं की कलई अपने आप खुल जाए।

            हर मन्दिर, मठ, संत, ध्यानयोगी, बाबा, महन्त, महामण्डलेश्वर और भौंपे-भल्ले या पातरवाईये या फिर चेले-चपाटी अपनी-अपनी दुकानों की पब्लिसिटी और इसके बाद के फायदों की गणित में अक्सर ऐसे आयोजन करवाने के आदी हो गए हैं। यही मौके होते  हैं जब इन्हें अपने अस्तित्व को बरकरार रखने, जमाने को आकर्षित करने और अनुचरों की फौज बढ़ाकर शक्ति परीक्षण में सफल होने का मौका मिलता है।

            फिर ऐसे आयोजनों के जरिये उन सैकड़ों-हजारों लोगों को रोजगार का मौका मिलता है जो ठाले बैठे रहते हैं। किसी भी इलाके की बात करें तो सैकड़ों लोग ऐसे देखने को मिल जाएंगे जो खुद एक ढेला भी कमाने की कुव्वत नहीं रखते मगर दूसरे की जेब खाली कराने का जो महारथ इन्हें हासिल है उसके आगे हर कोई नतमस्तक हो ही जाता है।

            ये लोग किसी भी धार्मिक आयोजन की रूपरेखा तैयार करने से लेकर अंजाम तक पहुंचाने का पूरा-पूरा सामथ््र्य रखते हैं। यह अलग बात है कि खुद की बजाय दूसरों के पैसों पर ही ये सवारी करते हैं।

            आजकल धर्म के नाम पर होने वाले सभी प्रकार के र्सावजनिक आयोजनों में चन्दे का बोलबाला है। यह चन्दा न होता तो धर्म का सूरज जाने कभी का डूब जाता। हर पखवाड़े-महीने भर बाद ऐसे आयोजक कोई न कोई नया अनुष्ठान लेकर आ जाते हैं। चन्दा उगाही के मौजूदा दौर में साल भर चन्दे वाले चाँदला करते रहते हैं। 

            एक ईमानदार आदमी अपने और परिवार का पेट पालने के बाद उतने पैसे बचा ही नहीं पाता कि चन्दा दे सके। फिर ऐसे आदमी को चंदा देने का कोई अधिकार नहीं है,  जिन पर धेला भर भी कर्ज हो अथवा दान-दक्षिणा के लिए कहीं से पैसे उधार लेने की नौबत हो, उन लोगों के दिए दान का कोई मूल्य नहीं है। जो भी दान दिया जाए वह प्रसन्नता से दिया जाए और पुरुषार्थ की कमाई में से दिया जाए, तभी दान का मूल्य है।

            कभी गणेशोत्सव, होली-दीवाली, कथा-सत्संग, मटकी फोड़, जुलूस, नवरात्रि तो कभी मन्दिर के काम के लिए धर्म के नाम पर साल भर किसी न किसी बहाने चन्दा वसूली और पराये पैसों के बूते त्योहार मनाना तथा आयोजन करना एक रीत बन गई है।

            यही कारण है कि धर्म की जितनी हानि हमारे समय में हो रही है उतनी इससे पहले कभी नहीं हुई। धर्म के नाम पर आयोजनों से अपना काम चलाने वाले लोगों के लिए कोई कमी नहीं है।  धर्म का अर्थ सिमट कर यही रह गया है कि मन्दिर या पूजा पाठ का काम। लोग समाज सेवा के किसी काम में चन्दा भले न दें, धर्म के भय पर दे ही देते हो।

            शास्त्रीय वचनों के अनुसार ऐसे धार्मिक कार्यों और अनुष्ठानों कोई फल प्राप्त नहीं होता जिसके पीछे अधर्म से कमायी संपत्ति का योगदान हो। किंचित मात्र भी काली कमाई का अंश होगा तो वह पूरे के पूरे धर्म-कर्म को दूषित कर देगा। ईमानदारी और पुरुषार्थ से कमाये एक पैसे का जितना मूल्य है उतना हराम के जमा करोड़ों रुपयों का नहीं।

            भगवान और यज्ञ देवता के सम्मुख जो भी सामग्री परोसी जाए वह खुद के पुरुषार्थ की शुद्ध कमायी होनी चाहिए न कि भ्रष्टाचार की उपज। आज जो भी बड़े-बड़े धार्मिक आयोजन होते हैं उनके लिए चन्दा या सामान देने वालों में बहुतायत उनकी होती है जो भ्रष्टाचार और अनाचार में डूबे हुए हैं और जिन पर अपराध, शोषण, व्यभिचार आदि के आरोप हों।

            इन भ्रष्ट लोगों को यह भ्रम होता है कि हराम की कमाई में से कुछ अंश धरम में दे दिए जाने से पाप कम हो जाएगा और पाप का दण्ड भुगतना नहीं पड़ेगा। जबकि ऐसा कभी होता नहीं। व्यक्ति के अच्छे-बुरे कर्मो का लेखा-जोखा अलग-अलग रहता है। पुण्य करने से पाप का क्षय कभी नहीं होता।

            यह व्यक्ति का भ्रम है कि धरम में दान करने से पाप कम हो जाएगा। यों भी जो धरम कर रहे हो उसमें भी खुद का पैसा कहाँ लग रहा है। जो पैसा लग रहा है वह भी भ्रष्टाचार का। ऐसे में पुण्य प्राप्ति की अपेक्षा और कल्पना व्यर्थ है। पुरुषार्थ की कमायी काएक फीसदी हिस्सा भी यदि दान-पुण्य में लगे तो कोई हर्ज नहीं मगर ऐसा होता नहीं।

            भ्रष्टाचार के पैसों की बुनियाद पर धार्मिक आयोजनों, यज्ञों, अनुष्ठानों और प्रतिष्ठाओं से भगवान को खुश नहीं किया जा सकता बल्कि भगवान अप्रसन्न होते हैं और कुपित होते हैं वो अलग। पोंगापंथी लोग अपने आपको धार्मिक मानने का भ्रम पाले हुए ऐसे आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं और खुद को अव्वल दर्जे के धार्मिक मानते हैं।

            इन्हें कौन समझाए कि पराये पैसों और भ्रष्टाचार की धनराशि से वे जो कुछ कर या करवा रहे हैं वह सब अधर्म ही है। धर्म में श्रद्धा अच्छी बात है। क्या जरूरी है समारोह या उत्सव आयोजन के नाम पर चन्दा उगाही की। मजे की बात यह है कि जो आयोजक हो वे धेला भर नहीं देते।

            हमारी श्रद्धा है तो मन्दिर में या घर के कोने में एकान्त में बैठकर भगवान का नाम जप करें या वह करें जो हमें रुचता है। ऐसा नहीं करके धर्म का बखेड़ा बनाते हुए दूसरों से चन्दा लेकर धर्म का सार्वजनिक ढोल बजाना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता।

            धर्म के नाम पर आजकल हर इलाके में यही सब हो रहा है। अपने-अपने इलाकों को ही देख लिजियें, बरसों से कथाएं, यज्ञ, अनुष्ठान, याग आदि ढेरों बड़े-बड़े आयोजन हो चुके हैं फिर भी धर्म वहीं का वहीं ठहरा हुआ है और धर्म के नाम पर धंधा करने वाले लोग धर्म को पीछे धकेल आगे कहीं आगे बढ़ते ही चले जा रहे हैं। इसी तरह के धर्म से कुछ होना होता तो आज अपना इलाका कहाँ होता?

            धर्म के मूल मर्म को समझने की आवश्यकता है। धर्म के परिपालन से समाज में जो सदाचार, शुचिता, आत्मीय भाव, प्रेम, स्नेह, श्रद्धा और सामाजिक समरसता, पारिवारिक एवं कौटुम्बिक शान्ति व सद्भाव, ईमानदारी आदि नैतिक मूल्यों का प्रसार कहीं दिख नहीं रहा। केवल कुछ-कुछ दिन का मनोरंजन जरूर हो जाता है।

            फिर उन धार्मिकों का चरित्र भी वैसा की वैसा ही दिखता है जो बरसों से धर्म के नाम पर धंधे चला रहे हैं, फिर चाहे इसमें किसी भी स्तर के धार्मिक क्यों न हों। यही कारण है कि सनातन की मूल आस्थाओं की बजाय धर्म के नाम पर उत्सवी मनोरंजन हावी होता जा रहा है।

डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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