कविता

रोटी और पानी

आज हम आधुनिकता के रंग में रंगे जा रहे  हैं
सुख सुविधाओं के गुलाम बनते जा रहे हैं
रोटी पानी की कीमत भूलते जा रहे हैं।
अन्न और पानी की बरबादी बेहिसाब कर रहे हैं।
बेतहाशा पानी बहा, रोटी बर्बाद कर रहे हैं
कल के बारे में हम नहीं सोच पा रहे हैं।
अन्न की बरबादी खुलेआम कर रहे हैं
कूडे़ कचरों के ढेर में पड़ी रोटियां
इसकी कहानी बयां कर रहे हैं।
नालियों में फेंकी जा रही रोटियां
हमारी मानसिकता का बखान कर रही हैं,
हम इंसानों के संवेदनहीनता की
खूबसूरत कहानी कह रही हैं।
भूख से बिलबिलाते लोगों की
निस्तेज आंखों का दर्द हम पढ़ नहीं पा रहे हैं,
मेहनतकश किसानों की हांडतोड़ मेहनत को
हम महज चंद सिक्कों से तौल रहे हैं।
पानी के लिए जगह जगह आये दिन
मचती जद्दोजहद को आंख मूंद कर
बेशर्मी से नजर अंदाज कर रहे हैं,
हम अपनी अगली पीढ़ी के लिए
कैसी व्यवस्था देकर जाना चाहते हैं?
हम ये भी नहीं समझ पा रहे हैं
जल जंगल जमीन का दोहन कर
रोटी पानी की राह में पत्थर उगा रहे हैं
अपने बच्चों को जीवन नहीं
मौत का उपहार देने का
शायद हम विचार कर रहे हैं
रोटी की जगह पत्थर और पानी की जगह
जहरीली गैसों का बाखुशी इंतजाम कर रहे हैं,
रोटी पानी का उपहास कर रहे हैं।
हम विकास पथ पर आगे बढ़ रहे हैं,
कल की चिंता छोड़कर हम आगे बढ़ रहे हैं
अपनी पीठ थपथपा रहे हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921