गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

मौसम ने ली अंगड़ाई बदली मेरी नीयत भी।

देखा जो उन्हें आंखें कर बैठी शरारत भी।।

होंठो पे तबस्सुम ले आये थे वो सपनो में।

उन शोख़ निगाहों में बसती है कयामत भी ।।

पहलू में गुजारे थे पल चंद जरा उनके।

सपनों में मिलीं जैसे हो साथ में जन्नत भी।।

अब ढूंढ रहीं उनको मेरी ये निगाहें फिर।

है नींद मेरी गायब गायब मेरी चाहत भी।।

कह दो तो जरा उनसे इक बात मेरे दिल की।

मिल जाएं हकीकत में है मुझको जरूरत भी।।

रो रो के बिताईं हैं अक्सर ही क‌ई रातें।

रातों को पढ़ी मैंने खत की वो इबारत भी।।

— प्रीती श्रीवास्तव

प्रीती श्रीवास्तव

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