मुक्तक/दोहा

द्वेष

देवता बनकर हमारे आँगनों में द्वेष बैठा।

ले विकारों की कलाएँ गृद्ध सा अनिमेष बैठा।।

नित्य होती अर्चनाएँ आरती के थाल सजते,

दीप जलते पुष्प चढ़ते किन्तु दोष विशेष बैठा।।

द्वेष के कारण समस्या राग की ज्यादा बड़ी है।

चाहते हैं शान्ति लेकिन भ्रान्ति कुछ ऐसी जड़ी है।।

चैन से सोने न देती साथ बेचैनी पड़ी है।

भाव मय थी भावना दुर्भावना लेकर खड़ी है।।

अट्टहासों की जगह पर हैं अधर पर रुष्ट ताले।

छीन कर मुस्कान तक को कर दिया मद के हवाले।।

क्लेश थमता ही नहीं है शान्ति के हैं आज लाले।

शत्रुता तक आ गए हैं हो रहे सम्बन्ध काले।।

लोग कुण्ठाग्रस्त होकर मन मसोसे चल रहे हैं।

लग रहे मौनी तपस्वी किन्तु सबको छल रहे हैं।।

हम दुखी हैं वह सुखी है इस जलन में जल रहे हैं।।

इस जलन की डाह पर हम दूसरों को खल रहे हैं।

तो चलो इस आग में अंगार वाली आग डालें।

राग को आहुति बनाकर यज्ञ में अनुराग डालें।।

द्वेष की रातें जला दें प्रीति का सुविहाग डालें।

मन प्रफुल्लित हो हमारा द्वेष को ही त्याग डालें।।

— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”

गिरेन्द्र सिंह भदौरिया "प्राण"

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