सामाजिक

महिलाओ ! महिला की आवाज़ बनो !

हर तीसरी पोस्ट पर स्त्री विमर्श और स्त्रियों के हक में ही लिखा जाता है। उस लेखन के ज़रिए स्त्री सम्मान की भावना को लेकर पुरुष को जानें कितनी बातें सुनाई जाती है। लेकिन हमारे समाज में महिलाएँ इसलिए पीछे नहीं कि उसकी आवाज़ को, उसकी प्रगति को पुरुष दबाते है; बल्कि इसलिए पीछे है क्योंकि दूसरी महिलाएँ उनकी आवाज़ नहीं बनती, साथ नहीं देती, सम्मान नहीं करती।
मर्द स्त्री का सम्मान करें न करें ये दूसरी बात है, पर क्या माँ, बहन, बेटी, सास, बहू और सहेली इन सबके मन में खुद परस्पर एक दूसरे के लिए सम्मान की भावना होती है? क्या एक स्त्री दूसरी स्त्री का सम्मान करना जानती है।
राग, द्वेष, इर्ष्या ग्रस्त मन जितना स्त्री का है उतना पुरुष का नहीं। यहां तक कि दो जिगरजान कहलाने वाली दो सखियों के मन में भी कहीं न कहीं एक दूसरे के लिए इर्ष्या भाव पनपता रहता है। ऐसे में सास-बहू, देवरानी-जेठानी या ननद-भाभी के बीच सामंजस्य की आशा रखना गलत है।
भले हर औरत ऐसी नहीं होती पर अधिकतर महिलाएँ ऐसी ही होती है। माँएं बेटी को हर तरह के संस्कार देगी, हर काम सिखाएगी पर बेटी को ये सीखाया नहीं जाता कि अपनी सास को माँ समझना, जेठानी को बड़ी बहन और ननद को सहेली समझना। इससे विपरित ससुराल को कालापानी की सज़ा बताकर अपनी बेटी को यही सिखाया जाता है कि सास से दबना नहीं, सारा काम अकेले मत ढ़ोना, जेठानी का हुकूम बिलकुल मत मानना और ननद के नखरें तो बिलकुल मत उठाना।
ना हि सास अपनी बहू को बेटी समझने की शुरुआत करती है। बहू कामकाजी है तो कितनी सास ऑफ़िस से थकी हारी लौटी बहू को चाय पिलाती है, या गर्म रोटी बनाकर परोसती है? या कौनसी जेठानी, देवरानी को छोटी बहन समझकर हर काम में हाथ बटाती है, ना हि ननद भाभी को वो सम्मान देती है। बहुत ही कम स्त्रियों में ये समझ होती है। और औरतों की यही कमी परिवार को बाँटने का काम करती है, परिवार में क्लेश पैदा करती है।
दहेज के लिए प्रताड़ित भी सास ही बहू को करती है, बेटी पैदा होने पर तानें भी सास ही बहू को मारती है। क्यूँ सास बहू के पक्ष में नहीं होती? कहा तो जाता है कि महिलाओं में क्षमा, दया, ममता जैसे प्राकृतिक गुण होते हैं, लेकिन आजमा कर देखिए उनकी यह दरियादिली की बारिश में भीगने का अवसर पुरुषों को ही ज्यादा मिलता है। जब लड़की ब्याह कर जाती है तो ससुर, देवर और नन्दोई उनके लिए किसी देवता से कम नहीं होते, लेकिन बेचारी सास या ननद साक्षात विलेन का ही स्वरूप होती है। वे हर किसीको आसानी से माफ कर देती है, लेकिन सास को? इस पर तो शायद कोई लड़की सोचना ही पसंद नहीं करती। जब ज़िंदगी एक ही छत के नीचे गुज़ारनी है, तो आख़िर क्यूँ सास बहू को बेटी की जगह नहीं दे सकती और बहू सास को माँ की जगह क्यूँ नहीं दे सकती। जब कि असल में ये रिश्ता सबसे मजबूत होना चाहिए।
कहीं भी देख लीजिए महिला को महिला के विरुद्ध ही पाएँगे। फिर वह चाहे शिक्षित हो, या निरक्षर। सदियों से यही चला आ रहा है और सदियों तक चलता रहेगा। बस एक बार सास-बहू में बेटी का रुप देखें और बहू सास में माँ का रुप कसम से “स्त्री ही स्त्री की दुश्मन” कथन का साहित्य के हर पन्नों से विसर्जन हो जाएगा।
पर गोसिप में माहिर स्त्रियाँ एक मौका नहीं छोड़ती अपने आस-पास बसी औरतों को नीचा दिखाने का। अक्सर किटी पार्टियों में एक स्त्री दूसरी स्त्री को नीचा दिखाने का काम ही करती है। स्टेटस से लेकर पहनावा, पसंद और रहन-सहन पर टिप्पणी करते खुद को सुंदर, सक्षम और समझदार दिखाने की स्त्रियों में होड़ लगी रहती है।
मर्द इस तरह की हरकतें बहुत कम करते होंगे। परिवार की नींव होती है स्त्रियां। हर माँ का फ़र्ज़ है अपनी बेटी को ये सीखाना की तुम्हारे जीवन में आनेवाली हर स्त्री का सम्मान करना। जब तुम सामने वाले को मान दोगी, अच्छा व्यवहार रखोगी तभी तुम्हें सम्मान मिलेगा। पहले हर स्त्री को एक दूसरे को समझने की जरूरत है, एक दूसरे को मान देते साथ और सहारा देने की जरूरत है। चाहे दोस्ती हो, परिवार हो या समाज स्त्री जब दूसरी स्त्री का सम्मान करना सीख जाएगी तब विभक्त परिवार एक होंगे, अखंड परिवार की शुरुआत होगी, अपनेपन और शांति सभर समाज का गठन होगा।
अगर कहीं भी सरेआम किसी स्त्री पर अत्याचार होता है, तब महिलाओं को एकत्रित होकर दमनकारियों का सामना करना चाहिए। जैसे कुछ समय पहले मणिपुर में घटना घटी थी एक औरत को निर्वस्त्र करके पूरे गाँव में घुमाया गया, उसके बाद राजस्थान में भी एक पति ने अपनी पत्नी को निर्वस्त्र करके घुमाया। ज़रा सोचिए उस औरत की मानसिक हालत के बारे में। तब अगर एकजुट होकर दूसरी महिलाएँ उस दरिंदों का विरोध करती तो उस औरत की बेइज्जती होने से बचा सकती थी। भीड़ से शेर भी घबराता है, इसलिए अब समय आ गया है राग, द्वेष, ईर्ष्या छोड़ कर महिलाओं के एकजुट होने का। जहाँ कहीं भी किसी महिला पर अत्याचार होता दिखे महिलाओं को ही आगे आकर विद्रोह करना होगा। तभी कुछ हादसों पर रोक लगेगी।
सिर्फ़ मर्दों से ये आशा न रखें की मर्द हर औरत का सम्मान करें स्त्रियों से भी ये अपेक्षा रखी जाएँ। हर बेटी को बचपन से ही ये सिखाया जाए तभी सदियों से चली आ रही परंपराएं टूटेगी। सास-बहू के संबंध माँ-बेटी जैसे बनेंगे और इर्ष्या भाव का शमन होते ही समाज संस्कारवान दिखेगा।

— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर