गजल
तुम्हारे इश्क़ का वो ज़ायका नहीं जाता
मगर ये ज़ुल्म भी इतना सहा नहीं जाता
लगा दीं बंदिशें तुमने भी सांस लेने पर
क़फ़स में सोने के हमसे रहा नहीं जाता
सियाह रात पे लिख दूं मैं चांदनी महकी
ख़याल आते हैं लेकिन लिखा नहीं जाता
बसा ली हमने गृहस्थी सुकूं भी है लेकिन
मुहब्बतों का वो पहला नशा नहीं जाता
हम इंतज़ार में बैठे बिछाएं हैं पलकें
समझिए आप ये हमसे कहा नहीं जाता
दुरूह रास्ते हों पर क़रीब हो मंजिल
थकान कितनी हो फिर भी रुका नहीं जाता
खसारा इश्क़ का भरपाई कर रहे हैं प्रखर
बगैर इश्क़ के लेकिन रहा नहीं जाता
— डॉ राजेश श्रीवास्तव प्रखर