भाषा-साहित्य

साहित्य और लोक मंगल

मेरा मानना है कि लोकमंगल का आशय हर उस क्षेत्र के मंगल यानी खुशहाली और समृद्धि से है, जिसका हमसे आपसे सीधा संबंध है। यथा खुद से, परिवार, क्षेत्र, समाज, राष्ट्र ही नहीं समूची धरा ही नहीं ब्रह्मांड से है। ऐसे में हमारा आपका और हर साहित्यकार का यह नैतिक कर्तव्य है कि जब भी उसकी लेखनी गतिशील हो तो उसका लक्ष्य किसी न किसी रूप में, स्तर पर उसके केंद्र में लोकमंगल हो, न कि केवल कुछ भी सृजित करने और सिर्फ मनोरंजन या समय काटने का बहाना हो। इस बात से तो हम आप भी इंकार इसलिए भी नहीं कर सकते, क्योंकि आजादी में साहित्य का योगदान भूला नहीं जा सकता। “(लोक मंगल का संबंध मन की मंगल भावनाओं से होता है। जिस साहित्य में लोकमंगल की जितना श्रेष्ठ मंगल भाव समाहित होता है, वह साहित्य उतना ही श्रेष्ठ माना जाता है। लोकमंगल की सिद्धावस्था को स्वीकार करने वाले कवि प्रेम को ही बीज भाव मानते हैं। प्रेम द्वारा ‘पालन’ और ‘रंजन’ दोनों संभव है। वात्सल्य भाव पालन से जुड़ा है तो दांपत्य भाव रंजन से। कालिदास, रवींद्रनाथ ठाकुर और जयशंकर प्रसाद आदि कवि इसी परंपरा के हैं। लोकमंगल” शब्द शुक्ल जी ने समाज दर्शन व काव्य दर्शन का केंद्र बिंदु है। यह शब्द उनके द्वारा परिभाषित “लोकसंग्रह” व “लोकधर्म” शब्द से कहीं अधिक व्यापक अर्थ रखता है। ‘लोक’ के साथ जब मंगल शब्द जुट जाता है तो वह मनुष्य जाति के साथ साथ भूमंडल के समस्त प्राणियों के कल्याण का आकांक्षी बन जाता है। तुलसी ने अपने सभी ग्रन्थों में इसी लोकमंगल को दर्शाया है और समस्त प्राणियों को मंगलकारी भक्ति का सुलभ और सीधा मार्ग बताया है। इसीलिए उन्होने इसे कलि मल हरण मंगल करन तुलसी कथा रघुनाथ कि कहा है।(गूगल से साभार)” एक साहित्य, कला और संस्कृति प्रेमी आसानी से विद्रूपताओं, विसंगतियों, विडंबनाओं और अनीतियों को आसानी से उजागर कर सकता है और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचा सकता है। यह सुविधा, सहजता या सहूलियत किसी अन्य के पास नहीं है। सामान्यतया एक साहित्यकार, चित्रकार जो कुछ देखता या महसूस करता, उसे त्वरित अथवा अल्प समय में आमजन को अपने माध्यमों से पहुंचा सकता है, लोगों को जगा सकता है, विचार के लिए प्रेरित कर सकता है, विरोध के लिए विवश कर सकता है। हालांकि आज के हालातों में इसका कुछ नुकसान भी है, जब विचारधारा के प्रवाह में साहित्यिक पृष्ठभूमि वाले भी बह जा रहे हैं और शांत सागर में पत्थर फेंकने जैसा ही है।

*सुधीर श्रीवास्तव

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