कविता

समय चक्र

अब आप इसे कुछ भी कहेंपर मैं तो समय चक्र ही कहता हूँ,इसे बदलाव की बयार ही मानता हूँ पर इसे विडंबना नहीं कह सकता हूँ।देखते- देखते क्या कुछ नहीं बदलाहमारा रहन- सहन खानपान, जीने का अंदाज़शिक्षा, कला, साहित्य, संस्कृति आवागमन के साथ, चिकित्सकीय व्यवस्थातकनीक का बढ़ता संजाल, मरती संवेदनाएँ ,आत्मीयता का छाता अभावमशीन बनता जा रहा मानव जीवनघटती हरियाली, पेड़- पौधे, लुप्त होते कुएँ तालाबखोते जा रहे प्राकृतिक जलस्रोत, सरोवर सिकुड़ती नदियाँ, सिसकते प्राकृतिक वातावरणपशुओं से सूने होते हमारे द्वारों की रौनकखेल- खलिहानों की खोती रौनकमशीनों पर निर्भर होता जा रहा हमारा मानव जीवनखाने- पीने की चीज़ों का आधुनिकीकरणअप्राकृतिक खाद्य पदार्थों का लुप्त होते जानास्वास्थ्य पर बीमारियों का पहरासमय चक्र ही तो है।पशु- पक्षियों, कीड़े- मकोड़ों की लुप्त होती प्रजातियाँ और उनके सुगमता से रहने की उपलब्धता खोते ठिकाने,नदी- नालों के किनारों पर बढ़ते अतिक्रमणऔर बढते जा रहे कंक्रीट के जंगलों का बेतरतीब जालपर्यावरण का बढ़ रहा असंतुलनबाढ़, सूखा, भूस्खलन, बादल फटने ही नहींबढ़ती प्राकृतिक आपदाओं के बीचहमारे मानवीय संबंधों, रिश्तों सेलुप्त हो रहा आत्मीय भावअविश्वास का हावी होता राक्षसऔपचारिक होते जा रहे हमारे आपके हर रिश्तेस्वार्थ की बलि बेदी पर हो रहा रिश्तों का खून।रिश्तों को निभाने की नहीं ढोने की विवशतान चाह कर भी रोते हुए हँसना और हँसते हुए जीनासमयाभाव का हर समय हमारा रोनामजबूरी है का तकिया कलाम दोहराते हुए जीनासमय चक्र नहीं तो क्या है?दोषी हम आप नहीं सिर्फ़ समय हैयह कह देना भला कितना है सहीसिवाय इसके कि दोष तो समय का हैहम सब तो दूध के धुले बड़े भोले हैंगंगा में डुबकी लगाकर अभी तोएकदम पाक साफ़ होकर निकले हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

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