धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

स्वस्थ तन-मन की राह है जैन धर्म

बारह साल की बाल अवस्था में घर त्याग करके आध्यात्मिक गुरु की शरण में जाने वाले क्षुल्लक श्री 1005 प्रज्ञांशसागर जी चातुर्मास परंपरा में पिछले चार माह से पंजाब, चंडीगढ़ व हरियाणा में श्रद्धालुओं के धार्मिक कल्याण में रत रहे। मध्य प्रदेश में जन्मे पले-बढ़े प्रज्ञांशसागर जी ने अमेरिका स्थित केलिफोर्निया के एक चर्चित विश्वविद्यालय से पीएचडी की प्रतिष्ठित डिग्री पाने वाले विरले प्रबुद्ध जैन संत हैं । हालांकि, प्रज्ञांशसागर जी का मानना है कि जैन धर्म में पीएचडी के कोई मायने नहीं होते हैं क्योंकि जैन धर्म के तीर्थंकरों ने अथाह ज्ञान हमारे जैन धर्मालंबियों को प्रदान किया है। मेरा पीएचडी करने का मकसद सिर्फ कैलिफोर्निया में अमेरिकी समाज को जैन धर्म से परिचित कराना था। सही मायनों में जैन धर्म आज दुनिया के वैज्ञानिक व चिकित्सकों का मार्गदर्शन कर रहा है। जिसकी वजह तीर्थंकरों का दूरदृष्टा होना ही है।
उल्लेखनीय है कि क्षुल्लक श्री 1005 प्रज्ञांशसागर ने प.श्री भागचंन्द्र जी द्वारा रचित ‘महावीराष्टक स्तोत्र’ का दीपार्चनम् रचकर मांगलिक बीजाक्षरों से श्रावकों को धर्म की नई ऊंचाइयों से रूबरू कराया है। जो यंत्र, मंत्र, प्रकाश के जरिये मन को निर्मल बनाता है।
बाल अवस्था में घर का त्याग करने वाले प्रज्ञांशसागर जी बताते हैं कि मां-बाप हमारा घर में ख्याल रखते हैं। लेकिन जब हम धर्म की राह चुनते हैं तो ईश्वर हमारा मार्ग निष्कंटक बना देते हैं। वे कहते हैं कि मेरे संन्यासी जीवन को बारह वर्ष हो चुके हैं, कह सकते हैं कि एक वनवास बीतने वाला है। लेकिन मन में किसी तरह की वेदना नहीं है। सच बात तो यह है कि भगवान अपने भक्त को एक क्षण के लिये कष्ट में नहीं रहने देते।
उनका मानना है कि जैन धर्म वैज्ञानिक सोच पर आधारित धर्म है। कोरोना काल में हमने मास्क के महत्व को समझा। जिसका महत्व जैन समाज ने हजारों साल पहले ही बता दिया था। हजारों वर्ष पहले जैन मुनियों ने पानी छानकर पीने की बात कही थी। लेकिन तब लोग इस बात विश्वास नहीं करते थे कि पानी में कोई जीव भी हो सकता है। कोई नहीं मानता था कि जल को छानकर पीने की जरूरत है। आज जब माइक्रोस्कोप जैसे यंत्र की खोज हुई तो पता चला कि पानी में 36 हजार तरह के जीव पाये जाते हैं। जिसको चार गुना कपड़े से छान कर पीने की बात जैन मुनियों ने की थी। दरअसल, हजारों जीव नंगी आंख से दिखायी नहीं देते।
प्रज्ञांशसागर जी मानते हैं धर्म कोई खेल नहीं। यह बात निराधार है कि जैन धर्म का मार्ग कष्टों से होकर गुजरता है। दरअसल, धर्म आत्मा का स्वभाव है। सही मायनों में धर्म हमारे वास्तविक स्वरूप से परिचित कराता है। निस्संदेह धर्म का मार्ग शुरू में कठिन लगता है, लेकिन बाद में इसकी पालना सहज हो जाती हैं।
क्षुल्लक श्री 1005 प्रज्ञांशसागर बताते हैं कि जैन धर्म का मूल उद्घोष है कि जिओ और जीने दो। जैन धर्म की आधारशिला अहिंसा हैं। ये धर्म अहिंसा से शुरू होता है और अहिंसा पर खत्म होता है। जैन साधक पैदल चलते हैं ताकि हम जीवों की रक्षा कर सकें। हम वस्त्र इसलिए नहीं पहनते की जीवों की रक्षा हो सके। वस्त्र साबुन से धोते हैं तो नाली में अनेक जीव मरते। ज्यादा खाना हमारे जीवन में प्रमाद पैदा करता है। ज्यादा और तामसिक खाना मादकता पैदा करता है। जैन मुनि दिन में सिर्फ एक बार खाना खाते हैं ताकि शरीर में ऊर्जा बनी रहे और जिससे हम धर्म का पालन कर सकें। जरूरी काम कर सकें । वैज्ञानिक सत्य है कि खून गाढ़ा हो सकता है, लेकिन आंसू में कोई बदलाव नहीं आता। उसका रंग नहीं बदलता।
क्षुल्लक श्री 1005 प्रज्ञांशसागर जी की चातुर्मास यात्रा का समापन हरियाणा के करनाल में सकल दिगम्बर जैन समाज और श्री दिगम्बर जैन सोसाइटी करनाल के तत्वावधान में आयोजित भव्य पिच्छिका परिवर्तन समारोह के रूप में 19 नवंबर को होगा। अन्य कार्यक्रम बीस नंवबंर से 28 नवंबर तक चलेंगे।
ऐसे वक्त में जब नई पीढ़ी के युवा अपने धर्म की गहनता व महत्व से अपरिचित नजर आते हैं, क्षुल्लक श्री 1005 प्रज्ञांशसागर जी ने अभिनव पहल करनाल में की है। जैन धर्म से जुड़ी महत्वपूर्ण व मार्गदर्शक जानकारी को लेकर एक स्पर्धा ‘जैन धर्म के हीरे-मोती प्रतियोगिता’ आयोजित की। जिसमें जैन धर्म का गौरव दर्शाने वाले पचास विषयों से जुड़े प्रामाणिक तथ्य प्रस्तुत करने थे। जिसमें बड़ी संख्या में प्रतियोगियों ने भाग लेकर जैन समाज से जुड़ी आध्यात्मिक, धार्मिक व सामाजिक जानकारी प्रतियोगियों ने उपलब्ध करायी। प्रतियोगिता में भाग लेने वाले प्रतिभागियों को आकर्षक पुरस्कार के जरिये प्रोत्साहित करने का प्रयास किया गया है। विजेताओं को पिच्छिका परिवर्तन कार्यक्रम में पुरस्कृत किया जाएगा।

— क्षुल्लक प्रज्ञांशसागर ‘कर्मयोगी’