गीतिका/ग़ज़ल

संकल्प

जीवन बीता है केवल, संकल्प निभाने में।

पूँजी सारी खो दी अपनी, और कमाने में।

जो बनते थे अपने, वे भी क्रमशः रूठ गए

लगा रहा मैं विनय भाव से, उन्हें मनाने में।

नहीं हिलाए हाथ – पाँव, सौभाग्य भरोसे पर

जाने क्या – क्या हार चुका हूँ, दाँव लगाने में।

दण्ड भोगना पड़ा चौगुना, सोच हुआ असफल

पाप सभी धुल जाएंगे ही, गंग नहाने में।

घूमा देश – विदेश, पर्यटन का आनंद लिया

मन को पूरी शांति मिली, निज ठौर – ठिकाने में।

बहुत बनाए मित्र, काम पर साथ खड़े होंगे

आती रहीं समस्याएँ, संबंध बनाने में।

भीड़ – भाड़ में इष्ट देव के दर्शन भी न मिले

चला गया पर्याप्त समय, बस आने-जाने में।

— गौरीशंकर वैश्य विनम्र

गौरीशंकर वैश्य विनम्र

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