गीत/नवगीत

पलते-पलते स्वप्न

पलते-पलते स्वप्न, नैनों को छल जाते हैं
करते-करते हवन, हाथ भी जल जाते हैं

आँगन में जो रोपा था, तुलसी का बिरवा
हवा चली कुछ ऐसी कि, वह शूल हो गया
कलश सजाने से पहले ही, शीशमहल का
गिरा धरा पर ऐसे, चकनाचूर हो गया
जिन्हें बिठाकर रखना चाहें, हम पलकों पर
अकसर वह मोती, आँखों को तड़पते हैं
पलते-पलते स्वप्न, नैनों को छल जाते हैं
करते-करते हवन, हाथ भी जल जाते हैं।1।

छाया मेरे साथ चलेगी, कदम-कदम पर
तपा सूर्य तो पल भर में वह, दूर हो गयी
इससे पहले कि बगिया में, फूल महकते
सारी कलियाँ नागफनी-सी, क्रूर हो गयी
बजते-बजते पायल के, घुँघरू भी रुनझुन
ना जाने कब पग को, घायल कर जाते हैं
पलते-पलते स्वप्न, नैनों को छल जाते हैं
करते-करते हवन, हाथ भी जल जाते हैं।2।

अगर न बिक पाएँ, सपने भी इस जीवन में
भला नैनों का मोल, जगत में कौन करेगा?
कालकूट को गले लगाकर, कौन यहाँ फिर
विषधर को धर कर अपना सिंगार करेगा?
जिन्हें पिलाओ दूध, सदा बाँहों में भरकर
वही सपोंले, नागिन बनकर डस जाते हैं
पलते-पलते स्वप्न, नैनों को छल जाते हैं
करते-करते हवन, हाथ भी जल जाते हैं।3।

— शरद सुनेरी