सामाजिक

सामाजिक और धार्मिक कार्यों में आगे कैसे बढ़ें

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।जिसका अपना सामाजिक और मानवीय धर्म भी है, जिसका निर्वहन उसे करना ही होता है। चूंकि मानव का प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष संबंध समाज और धर्म से होता है, जिससे तमाम व्यस्तताओं विवशताएं और इच्छा अनिच्छा के बावजूद वह इन सबसे पूर्णतया विमुख नहीं रह पाता, कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यह भी कह सकते हैं कि इसके पीछे कुछ भय, मान्यताएं, परंपराएं, सामाजिक, धार्मिक बाध्यताएं भी हैं, जिससे निकलने की उत्सुकता भी वह नहीं दिखाता। क्योंकि इसमें वह अपना कोई नुकसान भी नहीं देखता, अपितु मानसिक तनाव, असुविधा, अनावश्यक तर्क वितर्क, अकेला पड़ जाने का डर और पारिवारिक, धार्मिक रीतियों परंपराओं की डोर में बंधा होकर भी खुश रहता है। क्योंकि वह इसके सकारात्मक नकारात्मक प्रभाव गहराई से महसूस कर रहा होता है, जिसे काफी हद तक नजरअंदाज कर पाने की हिम्मत जुटाने के बारे में माथापच्ची करने के उदाहरण लगभग न के बराबर ही मिलते हैं। ऐसे में समाज के विकास और सामाजिक व्यवस्था में सर्वोपयोगी बदलाव लाने हेतु हर किसी को निजी स्वार्थों को भूलकर आगे बढ़कर कदम उठाने के साथ सामूहिक सहयोग की पृष्ठभूमि तैयार करने और एक दूसरे की महत्ता को रेखांकित करते हुए काम करना होगा, अहम और स्वयंभू का भाव त्याग करना होगा। बदलते परिवेश को भी महत्व देते हुए बिना किसी की उपेक्षा के पीढ़ीगत अंतर में समावेशी किंतु समयानुसार सर्वहितैषी सामूहिक निर्णय के आधार पर विभिन्न समाज और समुदाय के लोगो के बीच सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक, आध्यात्मिक संबंधों की सर्वोच्च पृष्ठभूमि को मधुर और सौहार्दपूर्ण बनाने में सर्वग्राह्य वातावरण का निरंतर प्रयास करना होगा। छोटी छोटी विवादित/वैमनस्य पैदा करने वाली गतिविधियों पर सबको लगाम लगाने के लिए तत्पर रहना होगा। धार्मिक कट्टरता किसी भी समाज के लिए घातक है क्योंकि विभिन्न धर्मों के मानने वाले लोग ईश्वर, अल्लाह, जीसस, वाहे गुरु आदि नामों से मानने वाले हैं, जबकि वास्तव में वह शक्ति एक ही है। जिसे हर कोई अपने धर्म, मान्यता, श्रद्धा से नामांकित कर पूजा, इबादत, करता है। सामाजिक जीवन का एक निश्चित आधार नहीं है।धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र भारत में सबसे ज्यादा जाति धर्म, और मान्यताओं वाले लोग रहते हैं है। जहां सभी धर्मो का सामाजिक, धार्मिक सम्मान समान है। सब एक दूसरे के पर्याय बने हुए हैं। सामाजिक ही नहीं धार्मिक सद्भाव, सहयोग का उदाहरण बिना स्वार्थ या लाभ हानि के बनते हैं। जिसे समय के साथ मजबूत करते रहने की सबकी जिम्मेदारी है। यूं तो कोई भी धर्म या धर्म ग्रंथ सर्वधर्म, भाईचारा, एकता, समभाव से भेद का संदेश नहीं देता। लेकिन विभिन्न धर्मों के कुछ स्वार्थी कथित मसीहा , कट्टर पंथी जहर घोलने का कुचक्र रचते रहते हैं। जिससे कई बार असहज स्थितियां बन जाती हैं, जो कभी कभी बड़ी डरावनी और भयावह बन जाती हैं हो जाती हैं। भाईचारा और सौहार्द के साथ आगे बढ़ने वाले लोग भी गुमराह होकर अपना विवेक खो बैठते हैं, तब कल तक जिसके लिए उनके मन में अथाह सम्मान होता था, वही सबसे बड़ा दुश्मन लगने लगता है। ऐसे में सभी धर्मावलंबी लोगों की नैतिक जिम्मेदारी है कि सौहार्दपूर्ण वातावरण को स्थायित्व देने की दिशा में निरंतर जागरूकता अभियान को समन्वय के साथ हर स्तर पर सभी धर्मो का आदर सम्मान सुनिश्चित रखने की कोशिश के साथ सभी का जीवन यापन की सुगमता का मार्ग प्रशस्त करने की अपनी अपनी भूमिका का निर्वहन करते रहें।जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा विभेद भूलकर धार्मिक, सामाजिक सद्भाव का जिम्मा अपने अपने ऊपर लें, तभी धार्मिक और सामाजिक वातावरण सुचारू रूप से आगे बढ़ सकेगा। “हर प्राणी अपना” और “हर धर्म सर्वश्रेष्ठ” का चिंतन ही श्रेष्ठ धार्मिक और सामाजिक वातावरण को स्थायित्व प्रदान कर सकता है। यह सबकी जिम्मेदारी और सबका मुख्य काम है, जब इस भावना को सब मिलकर विकसित करेंगे, तभी सभ्य समाज और धार्मिक मान्यताओं का सम्मान अपना अभीष्ट प्राप्त कर सकता है।

*सुधीर श्रीवास्तव

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