कविता

सहनशीलता

आधुनिकता के युग में
सहनशीलता का स्वरूप बदलता जा रहा है,
सहनशीलता की आड़ में
अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा रहा है,
ऊपर से सहनशीलता का आवरण ओढ़
अपना मान सम्मान ऊंचा किया जा रहा है।
वैसे भी आज के युग में सहनशीलता
बेकार की फालतू चीज बन गई है,
क्योंकि सहनशीलता के लक्षण वालों की गिनती
बेवकूफों की ऊंची प्रजाति में की जाने लगी है।
सहनशीलता का भ्रम अब टूट रहा है
माता पिता का भी डांटकर मुंह पकड़ा जा रहा है
बेटा बेटी और घर परिवार समाज में
सीने पर चढ़कर अकड़ दिखाया जाता है,
अपने से बड़ों की डांट फटकार के बदले
अपमान का आइना दिखाया जाता है,
उन्हें ही सहनशीलता का पाठ पढ़ाया जाता है,
जिनके पांवों की धूल के बराबर भी नहीं हैं
फिर भी शर्मोहया को ताक पर रखकर
बहुत बेशर्मी से पेश होने का नमूना दिखाया जाता है।
आज सहनशीलता की परिभाषा कठिन है
सहनशील होने से ज्यादा जरूरी
अपना मान सम्मान स्वाभिमान जरुरी है
सहनशीलता बनती जा रही मजबूरी है
क्योंकि आधुनिकता के इस युग में
सहनशीलता की वास्तविक परिभाषा से
आज के इंसानों की अमिट दूरी है।
क्योंकि सहनशीलता दम तोड़ रही है
अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है
इतिहास के पन्नों में आने की दिशा में बढ़ रही है
मानिए न मानिए पर आज का सच यही है
सहनशीलता अपने आप से ही दो दो हाथ कर रही है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921