लघु उपन्यास: रघुवंशी भरत (कड़ी 30)
अयोध्या के बाहर नन्दीग्राम में रहकर भरत जी बड़े परिश्रम और मनोयोग से राजकार्य चला रहे थे। उनके राज्य में सभी सुखी थे। वे प्रजा को अपने पुत्रवत् स्नेह करते थे और उनकी कठिनाइयों को दूर करने में तत्पर रहते थे। इस प्रकार शासन करते हुए तेरह वर्ष बीत गये। चौदहवाँ वर्ष चल रहा था और वह भी समाप्त होने को आ रहा था। परन्तु उनको श्री राम का कोई समाचार नहीं मिला था, इसलिए वे चिन्तित थे। वे सोचते थे कि ‘कहीं श्री राम ने मुझे भुला तो नहीं दिया। यदि वे वापस नहीं आये, तो मैं निश्चय ही प्रण के अनुसार अपने प्राण त्याग दूँगा।’
उधर श्री राम श्री लंका में युद्ध में उलझे हुए थे। उनको एक-एक दिन का ध्यान था। सीताजी का हरण हो जाने के कारण उन्हें राक्षसराज रावण से युद्ध में उलझना पड़ा था। सौभाग्य से चौदह वर्ष पूर्ण होने के कुछ दिन पहले ही वे रावण को मारने में सफल हुए और उसके भाई विभीषण को राज्य सौंप दिया। अब उन्हें अयोध्या पहुँचने की चिन्ता थी। उनको भय था कि यदि मैं चौदह वर्ष से एक दिन भी अधिक देरी से गया, तो भाई भरत को जीवित नहीं पाऊँगा।
यह सोचकर उन्होंने रावण के पुष्पक विमान से अयोध्या जाने का निश्चय किया, क्योंकि चौदह वर्ष पूर्ण होने में कुछ ही दिन बचे थे और उतनी अवधि में पैदल या वाहन से अयोध्या पहुँचना सम्भव नहीं था। विभीषण जी, सुग्रीव जी, हनुमान जी, अंगद जी आदि प्रमुख लोगों ने उनके साथ ही अयोध्या जाने की इच्छा व्यक्त की। उनका कहना था कि वे श्री राम का राज्याभिषेक अपने नेत्रों से देखना चाहते हैं। उनकी उत्कट इच्छा जानकर श्री राम ने उनको अयोध्या चलने की अनुमति दे दी और उनको भी पुष्पक विमान पर चढ़ा लिया।
यद्यपि पुष्पक विमान की गति इतनी थी कि वे एक ही दिन में अयोध्या पहुँच सकते थे। परन्तु उसी दिन उनके वनवास के चौदह वर्ष पूर्ण हो रहे थे, इसलिए वे उस दिन अयोध्या जाना नहीं चाहते थे। किन्तु अगले ही दिन उनको अयोध्या पहुँचना अनिवार्य था, इसलिए वे पहले चित्रकूट पार करके संगम में ऋषि भरद्वाज के आश्रम में पहुँचे। उनका विचार वहीं रात्रि विश्राम करने और ऋषि का आशीर्वाद लेने का था। उनकी एक इच्छा यह भी थी कि महर्षि से मिलकर अयोध्या के समाचार लिये जायें और फिर यह निश्चय किया जाये कि आगे क्या करना है। उनको पता था कि महर्षि अपने सूत्रों से पूरे देश के समाचार प्राप्त करते रहते हैं।
उन्होंने पुष्पक विमान को आश्रम परिसर में ही एक खुले स्थान पर उतार दिया। फिर वे शान्ति से उतरकर ऋषि की कुटिया की ओर चले। उन्होंने एक शिष्य के माध्यम से अपने आने का समाचार उनके पास भेज दिया। वैसे विमान की तेज ध्वनि से सबको ज्ञात हो गया था कि कोई विमान आया है। श्री राम के आगमन का समाचार पाकर महर्षि भारद्वाज बहुत प्रसन्न हुए। श्री राम ने उनके चरण स्पर्श किये और आशीर्वाद पाया। लक्ष्मण जी, सीता जी और श्री राम के सभी साथियों ने भी ऋषि के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद प्राप्त किया। ऋषि ने सबका यथा योग्य सत्कार किया।
श्री राम ने ऋषि भरद्वाज से पूछा- ”पूज्यवर! मैं अयोध्या के समाचार जानना चाहता हूँ। वहाँ सब कुशल तो हैं? मेरी सभी माताएँ जीवित हैं? भरत राजकार्य का कुशलता से संचालन और प्रजापालन कर रहे हैं?“
श्री राम द्वारा ऐसा पूछने पर ऋषि प्रसन्न हो गये और बोले- ”रधुनन्दन! भरत आपकी आज्ञा के अधीन रहकर ही सभी कार्य कर रहे हैं। वे आपके आगमन की प्रतीक्षा करते हैं। वे आपकी चरणपादुकाओं को सामने रखकर समस्त कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। आपके परिवार और नगर में भी सभी सकुशल हैं।“
यह सुनकर श्री राम को अतीव हर्ष हुआ और वे पुलकित हो उठे। उन्होंने कहा- ”प्रभो! मैं आज रात्रि यहाँ विश्राम करके कल प्रातः ही अयोध्या जाऊँगा।“ ऋषि भरद्वाज ने इस पर प्रसन्नता व्यक्त की और अपने शिष्यों को सभी अतिथियों के रात्रि विश्राम की व्यवस्था करने के निर्देश दे दिये।
— डॉ. विजय कुमार सिंघल
आश्विन कृ. 1, सं. 2082 वि. (8 सितम्बर, 2025)
