लू का प्रकोप
सूरज आतिश बन गया,तपे नगर औ” गाँव ।
जीव सभी अकुला उठे,ढूंढ रहे सब छाँव ।।
लू का तो आक्रोश है,बिलख रहे इंसान।
कुंओं,नदी की खो गई,देखो सारी आन।।
कर्फ्यू सड़कों पर लगा,आतंकित हर एक ।
सूरज के तो आजकल,नहीं इरादे नेक ।।
कूलर,पंखे हँस रहे,ए.सी.का है मान ।
ठंडे ने इस पल “शरद’,पाई नूतन शान ।।
कोल्डड्रिंक भाने लगे,कुल्फी पर है गौर ।
शीतल जल की मांग है,ठंडे का है दौर ।।
किरणें ना किरणें लगें,बरस रही है आग ।
बचना यदि चाहो ‘शरद’, तो लो बचकर भाग ।।
कम्बल अब बेकार हैं,बिरथा ऊनी वस्त्र ।
किरणें हमले कर रहीं,बनकर तीखे शस्त्र ।।
पानी जैसा बह रहा,तन से अविरल स्वेद ।
इस मौसम में हो रहा,हर इक जन को खेद ।।
गर्मी का आतंक है,तपन हुई विकराल।
लगता है देखो खड़ा,जीवन लेने काल।।
बेहद ही बेदर्द है,मौसम की यह मार।
तय है होगी ही ‘शरद’,हर मानव की हार।।
— प्रो (डॉ.) शरद नारायण खरे