उपन्यास अंश

उपन्यास : उम्र (पांचवी कड़ी)

रात को ना ज्यादा ठण्ड थी और ना अधिक गर्मी मामी जी चौके पर भोजन की तैयारी में लग गयी और मामाजी कुछ काम से कहीं निकल गये, बचा शंकर तो वो रमेश को अपने साथ ले आया और कुछ देर दोनों घर के सामने वाले कमरे में बैठे बातें करने लगे, शंकर एक ठेठ ग्रामीण परिवेश में पला बढ़ा लड़का था, रमेश उसे अपने फोन पर कुछ पुरानी फोटो आदि दिखा रहा था, तब शंकर भी ख़ुशी ख़ुशी उन फ़ोटोज़ को देख रहा था, आकाश का फोटो आया तो शंकर ने पुछा ‘अरे ये तो आकाश भैया हैं, कहाँ हैं ये?’

‘शहर में ही हैं सब, आकाश का तो बिजनस अच्छा चल पड़ा है, उसने पिछले ही दिनों अपनी चौथी फैक्ट्री खोली, नए लोगों को काम पर रख रहा है’ रमेश जैसे शंकर को समझाते हुए बोला, ‘अच्छा बड़ी तरक्की कर ली आकाश भैया ने भी वाह, जानकार अच्छा लगा,’शंकर ने मुस्कराकर कहा, ‘हाँ भाई सभी तरक्की कर रहे हैं’,जैसे ये बोलकर रमेश की आँखों में एक सपना सा फिर उभर आया हो…’शंकर ने रमेश की आँखों में देखा, उसे लगा जैसे ऐसे गंभीर विषय पर अभी रमेश रो पड़ेगा, और उसने बात बदल दी, ‘अच्छा भैया बुआ कैसी हैं?’ और गुडिया दीदी कैसी हैं? फूफा जी से भी मिले बहुत दिन हो गए, ‘शंकर कुछ बड़ों की तरह बोला.

‘तो आ जाओ भाई शहर, और मिल लो अपने बुआ फूफा जी और गुडिया से, चलो कल मेरे साथ,’रमेश हँसता हुआ बोला,’अरे नहीं भैया यहाँ बड़ा काम रहता है, खेत में इन दिनों हल चलवा रहे हैं वही देखना पड़ता है सब कुछ’,शंकर ने जैसे समस्या सामने रखी, ‘अच्छा भाई तुम भी बड़े व्यस्त हो मतलब, चलो अच्छा है इस उम्र से ही काम पर लग गए हो’.शंकर हँसते हुए बोला.’हाँ भैया आगे भी हमारा खेती करते रहने का ही विचार है,तगड़ा मुनाफा है, सर्कार भी किसानों के साथ खड़ी है, ‘शंकर खुश होता सा बोला, इस बात पर रमेश हंस दिया,’ हाँ भाई शंकर सो तो है!’

तभी दरवाजे पर मामाजी ने दस्तक दी उनके हाथों में थैला था शायद कुछ सब्जी वगैरह वे बगीचे से ले आये थे, उन्हें देखकर रमेश बोला ‘अरे वाह मामाजी आ गये, ये सब्जियां कहाँ से ले आये ताज़ी ताज़ी’ मामाजी कुछ थके से थे कुछ हाँफते से बोले ‘अरे अपने बगीचे से और कहाँ से, खेत में ही एक छोटा सा बगीचा बनवा दिया है, ताज़ी सब्जियां वही लगा देते हैं,’मामी को थैला पकड़ते हुए मामाजी बोले, ‘अरे वाह बहुत अच्छा है, ‘बैठे बैठे ही रमेश बोला, ‘फिर शंकर उठा और शायद कोई काम से बाहर चल दिया, मामाजी रमेश के पास आकर बैठे और बोले ‘अरे इसे भी बड़ा काम है आजकल मेरा अधिकतर काम शंकर ही देख लेता है, वे मुस्कराते हुए बोले. ‘हाँ मामाजी अच्छा तो है आपको एक सहारा है’, ‘रमेश जैसे गंभीरता से बोला, ‘शंकर को आगे पढाई वगैरह का क्या सोचा है मामाजी ?’ रमेश ने जैसे प्रश्न किया,’हाँ देखते हैं पिछली दफे बारहवी नहीं निकाल पाया था, इस साल देखते हैं क्या होगा, वरना हम तो उसे खेत में ही काम करवाने के पक्ष में हैं रमेश भैया’ मामाजी ने जैसे किसी व्यंग्य का उद्घाटन सा किया और आगे बोले ’ये पढाई के चक्कर में सारा जीवन अस्त व्यस्त सा हो जाता है, अब खुदको देखो पिछले २ बारी से असफलता के बाद वो तो तुम हो कि जुटे हुए हो, हम या शंकर होते तो कबके इससे पीछा छुड़ा कही और रोटी पानी का जुगाड़ देखते,’रमेश जैसे अवाक रह गया, मानो ये बात चुभ सी गयी हो, उसके ह्रदय से जैसे अश्रु पिझर रहे हों किन्तु उन्हें सबके सामने ना दिखाने का साहस भी तभी उमगा और वो मुस्कराता सा मंजी को देखकर बोला ‘हाँ मामाजी सही है सबका अपना अपना जीवन है, इसे कैसे जीना है ये तो वो ही तय करता है!’ रमेश ने भी जैसे उस बात का मानसिक कटाक्ष सा किया, मामाजी ने इस बात पर चुप्पी साध ली और रमेश की तरफ देखकर बस मुस्कुरा दिए, इस तरह काफी देर दोनों में काफी देर चर्चा हुयी!

शंकर ने दरवाजे पर दस्तक दी और रमेश की तरफ देख मुस्कुराता सीधा अन्दर घुस गया, कुछ देर में ही खाने की खबर आई और रमेश और मामाजी अन्दर चले गए, रमेश ने हाथ पैर धोये और भोजन के लिए शंकर और मामाजी के साथ ही बैठा, गाँवों में आज भी बड़ी शांति रहती है, शहर की दौड़ भाग से दूर गाँवों में जो भोजन करने का सुकून होता है वो रमेश ने इस समय महसूस कर रहा था, मामी रमेश की ओर गैस चूल्हे के पास बैठी ही मुस्कराकर देख रही थीं, उन्होंने पूछा ,’कैसा लगा गाँव का खाना रमेश भैया?’ ‘मामी जी जैसे आज बहुत दिनों बाद मेरी भूख मिट गयी हो आपने ऐसा भोजन कराया है’, रमेश खाना ख़त्म करता हुआ बोला और गिलास से पानी पीकर उसने मामी जी के खाने की काफी प्रशंसा की इसी तरह मामाजी और शंकर ने भी खाना ख़त्म किया और तीनो फिर बाहर आँगन में आ गये मामी जी चौके का सारा काम निपटाकर खाना खा रही थीं, इधर बाहर शंकर सीढ़ी पर बैठा शंकर के मोबाइल पर कुछ करने लगा और रमेश और मामाजी आँगन में ही टहलने लगे!

टहलते हुए मामाजी ने एक यक्ष प्रश्न सा उठाया ‘रमेश शादी का क्या सोचा है?’ वही प्रश्न जिससे पिछले काफी समय से वो जूझ रहा था एक बार फिर किसी इम्तिहान की तरह उसके सामने था जिसमे वो हमेशा मात खता था और पूछने वाला सफल होता था, ‘शादी,,,शादी अभी कहाँ मामाजी? अभी तो एक सरकारी नौकरी की तलाश में हूँ!’ टहलते हुए रमेश ने भी उत्तर जैसे तैसे दिया, वही रटारटाया उत्तर जो हर किसी के लिए उसने इस सवाल के पूछे जाने पर देने के लिए बना रखा था, ‘पर रमेश बाबू अब उम्र भी तो देखो बढती ही जाती है, माँ पापा का भी तो ख्याल करो बेटे’ मामाजी भी समझते हुए बोले’, जैसे रमेश को नहले पर दहला मिल गया अब रमेश क्या कहता. ‘हम्म…’ कहता हुआ वो सिर्फ मुस्कराया, मामाजी ने जैसे वार पर और दूसरा वार कर दिया ‘फिर भाई हमारी गुडिया की भी तो शादी करनी है,बड़ा भाई कुंवारा बैठेगा तो कैसे भला छोटी बहना की शादी हो पायेगी?’ मामाजी जैसे आज ही सारे घावों को छील देना चाहते थे.

रमेश के पास उत्तरों की भयंकर कमी सी थी, वो क्या कहता उसे मामाजी की बातें बिलकुल सही समझ आ रही थीं, भारतीय समाज के मध्य वर्ग की प्रायः यही परिस्थिति है, संघर्ष करते जवानों के सामने कई यक्ष प्रश्न हैं, किन्तु उनके उत्तर जैसे उनके मन खजाने में कहीं नहीं मिलते, इस समय रमेश की हालत मानो बड़ी ख़राब थी और वो बस मामाजी के पीछे पीछे टहल रहा था, उसे थोडा सा विषय से भागने का मौका तब मिला जब शंकर ने हँसते हुए कहा,’अरे,,,ये प्यारा सा बछा कौन है आपके फोन पर भैया?’ ‘अरे वो अंश है आकाश का बेटा!!’ रमेश ने हँसते हुए कहा! आकाश का नाम सुनते ही मामाजी को जैसे बतियाने को एक और विषय मिल गया ‘अरे आकाश कैसा है वो? सुना है बड़े ठाट हैं उनके तो,’ मामाजी हँसते हुए बोले,’रमेश ने कहा.’हाँ वो हैं मामाजी पिछले दिनों नयी फैक्ट्री खोली है उसने!!’ रमेश ने जैसे गर्व करते हुए खुश होकर बताया, ‘अच्छा…’ मामाजी ने हंसकर कहा.’तुम उसके साथ काम क्यों नही कर लेते?’ मामाजी ने जैसे आज पूरा मन बना लिया था कि वो रमेश को धो डालेंगे.

‘अरे मामाजी काम तो मैं कहीं भी कर लूं, लेकिन चाहता हूँ कि एक अच्छी नौकरी मिल जाए ताकि पिताजी के सर का टेंशन दूर हो और मैं भी थोडा खुदको सेटल कर सकूँ…’ रमेश ने जैसे अपने पास के रहे सहे उत्तरों को मिलाकर एक लम्बा उत्तर दे दिया हो, ‘मामाजी बोले,’अच्छा भाई ठीक है जैसा तुम्हे अच्छा लगे, हम तो बस तुम्हे खुश देखना चाहते हैं!’ मामाजी ने जैसे इस मानसिक युद्ध की समाप्ति की घोषणा सी कर दी, और शंकर से बोले ‘अरे जाओ शंकर, भैया के सोने का इन्तजाम करो भाई..’ रमेश ने जैसे शांति महसूस की और मुस्कराता हुआ शंकर को देखता रहा, शंकर आया और रमेश का मोबाइल देते हुए ,सीधा अन्दर भाग गया, इधर रमेश और मामाजी रमेश के दिल्ली जाने के बारे में चर्चा करते रहे!!

रात में रमेश के लिए बीच के कमरे में जहाँ शंकर सोता था वह बिस्तर लगा दिया गया, दोनों के बिस्तर आजू बाजू थे, दिनभर का थका हुआ शंकर जल्दी ही गहरी नींद में सो गया, इधर रमेश कुछ देर रमेश अपने मोबाइल पर झांकता रहा और फिर उसकी आँख भी लग गयी, कुछ ११ बजे के आसपास सन्नाटा पसर गया, मामाजी और मामी जी भी सो चुके थे, लगभग रात अपने पूरे परवान पर थी की कुछ २ बजे के आसपास रमेश की नींद टूटी और वो करवटें बदलने लगा, उसने अपना मोबाइल चालू किया कुछ २ बजकर ३२ मिनट हुए थे, उसे इस गहरे अँधेरे में एक अनंत ख़ामोशी को महसूस किया, ऐसी अपार शांति की शायद जो शहर में दूभर थी, इस अनंत शांत और अँधेरे से घिरे हुए माहौल में बाहर की तरफ खुली हुयी खिड़की से चंद्रमा का सा प्रकाश आकर गिरता था, कुछ स्याह काली रात में चंद्रमा ही मानो जीवन का सहारा सा था, तिमिर उस रात में तो था ही किन्तु एक तिमिर रमेश की आँखों में जल रहा था, जैसे जीवन की सबसे विकट समस्या को तब ही उसके मन में घर करना था, लेटे लेटे वो बायीं करवट मुड़ा और दीवार की ओर खुली आँखों से देखता हुआ आज मामाजी की कही हुयी बातों से जैसे अपने मन में चुभन सी महसूस करता कुछ सोचने लगा.

इस तरह रात में उसकी नींद कई बार टूटती जब कभी उसकी उम्र, भविष्य और आगे के जीवन आदि को लेकर कोई गहरे जख्मों पर नमक सा छिड़क देता था, आज भी वही हुआ, फिर नींद टूटी और खुली आँखों से जैसे उसका चिंतन चालू था, उसकी आँखों में बिलकुल भी नींद नहीं थी उसने महसूस किया, उसे जैसे लगा कि क्या हमेशा उसे इसी तरह ग्लानि उठानी पड़ेगी?, क्यों कुछ बदलता नहीं? क्यों मैं बार बार अपनों के ही बीच सर झुकाने मजबूर हूँ? क्या इसका कोई अंत नहीं,? ऐसे अनंत सवाल उसके मन में उठते और फिर धीरे धीरे धूमिल होते जाते. उसे फिर अनीता की याद आती, ऐसी स्याह रातों में अक्सर हम अपने अतीत के पन्ने पलटकर ही ख़ुशी तलाश करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वो अतीत अधिक समय तक सहारा नहीं देता, देता है तो बस एक टीस जो अक्सर मन में उठती है और समय रहते ही शांत हो जाती है! अनीता की याद में रमेश को याद आया कि कैसे एक रात जब कॉलेज के दिनों में उन सबको ऊटी पिकनिक पर ले जाया गया था तो सभी ने अपने अपने साथी चुने थे कि वो इनके साथ कैंप पर रुकेंगे, आयोजकों को लड़के लड़कियों के एक साथ रहने से कोई परेशानी नहीं थी, क्यूंकि वे सब भी जवान ही थे, तब रमेश और अनीता एक ही कैंप पर रुके थे, कुछ २ या ढाई घंटे तक एक दुसरे से बात करते रहे थे पर तभी अचानक काव्या आ गयी थी उसका आकाश से झगड़ा हो गया था और कैंप छोड़कर रमेश को जाना पड़ा था, फिर बाकी की रात उसने आकाश के कैंप पर बितायी थी दोनों काव्या और आकाश के झगडे के बारे में बात करते रहे थे!!

आज एक अलग रात थी, ये एक गाँव था, रमेश से बात करने कोई नहीं था, शंकर गहरी नींद में सो रहा था, अपने मोबाइल में झांकता हुआ रमेश यकायक अनीता के नंबर पर पंहुचा, उसका मन तो हुआ कि उसे फोन करता पर कुछ प्रतिबद्धताएं हमे अपने मनमाने काम से रोक लेती हैं, रमेश को याद आया कि सबकुछ वैसा नहीं था, जैसे कभी हुआ करता था, अनीता से उसकी बात ७ साल पहले ही बंद हो चुकी थी, उसे समझ आया कि समय बहुत आगे निकल चुका था और वो अतीत में बाँट जोह रहा था, ये काली रात बीतती भी ना थी जैसे एक बड़ा रोड़ा रमेश के जीवन में यही बन गयी हो, उसे मामाजी के बर्ताव से भी हल्का डर सा प्रतीत होने लगा था, कुछ देर से लगातार लेटा हुआ रमेश सिर्फ दीवार की तरफ देख रहा था और देखते देखते ही कुछ ३ बजे उसकी आँखें लग गयीं!

गाँव में दिन की शुरुवात शहर से बहुत अलग होती है, कुछ ७ बजे रमेश की नींद टूटी, उसने अपने आसपास देखा, शंकर बिस्तर पर नहीं था, बाहर से पानी की आवाज आ रही थी, मामीजी पानी से शायद कुछ धो रही थी, मामाजी शायद सुबह ही कहीं निकल गये थे, तभी तौलिया लपेटे कंघी करता शंकर कमरे में आया और रमेश की तरफ मुस्कराता हुआ बोला ‘अरे भैया उठ गये,,,,कैसी रही नींद भैया, आप तो काफी देर सोये’ रमेश ने उसे देखकर सिर्फ एक उत्तर दिया ‘हाँ..’ और फिर उठकर वो भी तैयार होने चला गया!!

जारी रहेगा….

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

3 thoughts on “उपन्यास : उम्र (पांचवी कड़ी)

  • मानसी

    उपन्यास रोचक है। पिछली कड़ियाँ भी पड़ ली।

  • विजय कुमार सिंघल

    कहानी रोचकता के साथ आगे बढ़ रही है। बहुत ख़ूब ।

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