कविता

अनूठा सफर

हां!

कैसा अनूठा सफर ट्रेन का,
बिल्कुल जिंदगी की तरह,

रास्ते भर तकना,
अपने हिस्से का आकाश,
खिड़की से उलटी दिशा में भागते पेड़,
जैसे जमीन से जुडी
सारी तकलीफों को पीछे छोड़कर
मंजिल की तरफ दौड़ना,

ठंड की सिरहन,
मछली की गंध,
चीखम चिल्ला,
शोरगुल,भीड़भाड़,
भीख मांगते बच्चे,
भूले बिसरे गीत गाने वाला भिखारी,
जिंदगी की छोटी मोटी तकलीफों के एहसास की तरह,

चाकलेट वाला,
आइसक्रीम वाला,
खिलौने वाला,
चाय वाला,
ट्रेन की बर्थ पर कंबल ओढ़े,
गाने सुनते हुए,सफर करना,
जिंदगी की छोटी मोटी खुशियों के एहसास की तरह,

और सफर के अंत में,
रिक्शेवाले की तलाश,
घर पहुंचने की जल्दी,
भागमभाग,थकान,
और घर पहुंचकर,
अपने गर्म बिस्तर में घुस जाना,

अपने हिस्से का आकाश,
खिड़की से उलटी दिशा में भागते पेड़,
तकलीफों के एहसास,
खुशियों के एहसास,
भागमभाग,थकान,
जिंदगी में मंजिल को पाकर सबकुछ भूल जाना,
कैसा अनूठा सफर ट्रेन का,
बिल्कुल जिंदगी की तरह…

प्रीति सुराना