उपन्यास अंश

यशोदानंदन-३३

पृथ्वी पर हेमन्त ऋतु का आगमन हो चुका था। कास के श्वेत पुष्पों से धरा आच्छादित थी। प्रभात होते ही हरसिंगार के श्वेत-पीले पुष्प धरती पर गिर जाते थे। ऐसा प्रतीत होता था कि वृन्दावन की धरती पर श्वेत-पीले गलीचे बीछ गए हों। ग्रीष्म की तेज धूप और शिशिर की लगातार वृष्टि के बाद हेमन्त का समशीतोष्ण मौसम किसे नहीं भाता? हेमन्त के प्रथम मास अग्रहायण में व्रज की कुमारियां पूरे एक माह तक माँ कात्यायिनी का व्रत रखकर मनोवांछित वर की कामना करती थीं। पूजा के पूर्व यमुना के स्वच्छ जल में स्नान करने का प्रचलन था। स्नान के पश्चात्‌ यमुना के बालू से माँ कात्यायिनी की प्रतिमा बनाई जाती थी, फिर माँ दुर्गा की एक रूप देवी कत्यायिनी को चन्दन-लेप, माला, धूप-दीप, फल-अन्न तथा पौधों की शाखाओं की भेंट चढ़ाई जाती थी।

यमुना के तट पर स्त्रियों के स्नान के लिए अलग घाट बना था। वहां पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। नित्य की भांति सारी  गोपियां तट पर एकत्रित हुईं, एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नृत्य के साथ उच्च स्वर में श्रीकृष्ण-लीला का गान किया, अपने वस्त्र घाट पर रखा और नदी में प्रवेश कर जल-क्रीड़ा करने लगीं। स्नान के पश्चात् जल से निकलने को उद्यत गोपियों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। दूर-दूर तक कोई व्यक्ति या पशु दिखाई नहीं पड़ रहा था। परन्तु उनके सारे वस्त्र लुप्त थे। निर्वस्त्र बाहर आकर वस्त्रों को ढूंढ़ना कठिन था। वे पुनः जल में पहुंच गईं। विकल गोपियों को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें? कातर दृष्टि से एक-दूसरे को तथा यमुना के तट को देख रही थीं। तभी पास के कदंब के वृक्ष से वंशी की मधुर धुन सुनाई पड़ी। समझने में देर नहीं लगी – चीरहरण का यह कृत्य उनके प्रिय कान्हा का था। कृत्रिम क्रोध के साथ सर्वप्रथम राधा ने ही उपालंभ दिया –

“कान्हा! तुमने यह क्या किया? हमलोगों के वस्त्र लेकर कदंब पर चढ़ गए हो और निश्चिन्त होकर बांसुरी बजा रहे हो? पुरुषों के लिए वर्जित यमुना के इस तीर पर आने का तुमने दुस्साहस कैसे किया? हम तुम्हारी इस शरारत की शिकायत यशोदा मैया से लगायेंगे। उनके अतिरिक्त लाड-प्यार ने तुम्हें बिगाड़ दिया है।”

कान्हा की मुस्कुराहट अब हंसी में बदल गई थी। गोपियों को चिढ़ाते हुए उन्होंने ऊंचे स्वर में कहा –

“जाओ, जाओ, अभी जाओ और मैया से मेरी शिकायत लगाओ। मैं भी कहूंगा कि मेरे बार-बार मना करने के बाद भी ये गोपियां निर्वस्त्र होकर यमुना के जल में स्नान कर वरुण देवता का अपमान करती हैं। तुम लोगों को दंड देने के लिए ही मैंने आज चीरहरण किया है।”

“चलो अच्छा किया, दंड दे दिया। अब तो हमारे वस्त्र लौटाओ। बिना वस्त्र के हम ग्राम-प्रवेश कैसे करेंगी?” गोपियों ने समवेत स्वर में श्रीकृष्ण से आग्रह किया।

“हे बालिकाओ! तुमलोगों ने निर्वस्त्र होकर जल में प्रवेश करके वरुण देवता को रुष्ट किया है। अब हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करो, क्षमा-याचना करो और यह वचन दो कि पुनः ऐसा कृत्य नहीं करोगी। इसके पश्चात्‌ ही तुम्हारे वस्त्र तुम्हें लौटाऊंगा।”

सरल जीवात्मा गोपियों ने श्रीकृष्ण के आदेश का अक्षरशः पालन किया। उन्होंने एक साथ प्रार्थना की –

“हे श्रीकृष्ण! हे कान्हा! हे श्यामसुन्दर! हम सबने तुम्हारी आज्ञा का पालन किया। भविष्य में भी तुम जैसा कहोगे, वैसा ही करेंगी। तुम हम सबके आराध्य हो। तुम चाहे दंड दो, या प्यार करो, अपने पैरों के नीचे रौंद दो या हमारे हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर दो। तुम्हारी जो इच्छा हो, करो, तुम्हें पूरी छूट है। परन्तु हमारे वस्त्र हमें लौटा दो।”

श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए गोपिकाओं को पुनः संबोधित किया –

“हे शिष्ट बालिकाओ! मैं तुम्हारी इच्छा से परिचित हूँ। मुझे भलीभांति ज्ञात है कि तुमलोगों ने देवी कात्या्यनी का व्रत क्यों ले रखा है? मैं तुमलोगों की इस पूजा का अनुमोदन करता हूँ। तुमलोगों की इच्छा पूर्ति के लिए आगामी शरद-पूर्णिमा को मैं तुमलोगों के साथ महारास रचाऊंगा। तुम सभी यमुना के इसी तीर पर आमंत्रित हो। अब बारी-बारी से मेरे समीप आओ और अपने वस्त्र ग्रहण करो।”

“तुम्हारे पास? बारी-बारी से? वह भी बिना वस्त्र के? ऐसा न करो श्याम। हमें और मत सताओ। हमें लज्जा आ रही है। देखो, देर तक जल में रहने से हम ठिठुर रहे हैं। हमारे अंग-अंग कांप रहे हैं। हम किसी पर पुरुष के सम्मुख निर्वस्त्र कैसे आ सकती हैं? तुम तो समझदार हो, तुम्हीं बताओ।” गोपियों ने एक साथ याचना की।

श्रीकृष्ण ने गोपियों के संदेह का निवारण किया –

“मैं और पर पुरुष? संभवतः तुम लोग अपने साथ मेरे संबन्धों से परिचित नहीं हो। तुममें से कोई भी मुझसे अलग नहीं है। यह शरीर तो मात्र एक उपकरण है। इसके भीतर जो आत्मा है, वह और कोई नहीं, मैं ही तो हूँ। हर जन्म में मैं और तुम साथ रहे हैं। तुम लोगों ने सच्चे मन से मेरी भक्ति की है, मुझे प्यार किया है। मैं तुमलोगों पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। इसीलिए तुम सभी को अपना प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। इस मर्त्यलोक में तुमलोगों का यह अन्तिम जन्म है। इसके पश्चात्‌ तुम सभी जीवन और मृत्यु के चक्र से सदा के लिए मुक्त होकर मेरे लोक में आओगी। अंश और अंशी के मध्य कैसा आवरण? कैसी लज्जा और कैसा संकोच? भक्त का पूर्ण समर्पण ही मेरी प्राप्ति का माध्यम है। हर तरह की द्विधा का पूर्ण परित्याग कर तुमलोग बारी-बारी से मेरे पास आओ और अपना भौतिक वस्त्र प्राप्त करो।”

श्रीकृष्ण की वाणी के एक-एक शब्द से सम्मोहित गोपियों ने विपिन बिहारी के निर्देशों का अक्षरशः पालन किया और अपने-अपने वस्त्र प्राप्त किए।

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-३३

  • विजय कुमार सिंघल

    आपने चीर हरण लीला का अच्छा वर्णन किया है!

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