आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 30)

हमारे फ्लैट के आसपास के फ्लैटों में रहने वाले अधिकांश परिवारों से हमारा सामान्य परिचय था, मगर घनिष्टता केवल एक से थी। वे थे श्री गोपाल लाल पुरोहित, जो राजस्थानी थे और वाराणसी में एक मारवाड़ी सेठ के यहाँ एकांउटेंट थे। वे संघ के काफी कर्मठ कार्यकर्ता थे और हमारे नगर के कार्यवाह भी रहे थे। इसलिए उनसे काफी घनिष्टता हो गयी थी। बाद में वे वाराणसी छोड़कर अपने गृह नगर किशनगढ़ (अजमेर) चले गये थे और अभी वहीं हैं। उनके यहाँ पावरलूम पर कपड़े की बुनाई का कार्य होता है।

जैसा कि प्राइवेट नौकरियों में होता है, गोपालजी से उनके सेठजी द्वारा जमकर कार्य लिया जाता था। वे सायंकाल देर से लौटते थे लगभग 8 बजे और लौटने के बाद से ही सिरदर्द से पीड़ित रहते थे। रातभर सोने के बाद ही उनका सिरदर्द ठीक होता था। बाद में उनके मूत्र में मवाद जैसी वस्तु भी आने लगी थी। इसके लिए ऐलोपैथिक डाक्टरों ने उन्हें आॅपरेशन कराने के लिए कहा था, जिसमें 15-20 हजार रुपये खर्च होने की संभावना थी और 1 माह का समय भी लग जाता। आज की तरह उन दिनों भी मैं ऐलोपैथी चिकित्सा प्रणाली से बहुत घृणा करता था और प्राकृतिक चिकित्सा विधियों द्वारा न केवल स्वयं स्वस्थ रहता था, बल्कि अन्य लोगों को भी सलाह दिया करता था। जो लोग मेरी सलाह पर चलते थे, वे लाभ उठा लेते थे।

जब मुझे गोपाल जी की बीमारी के बारे में पता चला, तो मैंने उन्हें प्राकृतिक चिकित्सा कराने की सलाह दी। मैंने उनसे कहा- ‘आपकी इन दोनों शिकायतों का इलाज है पानी। आपको कम से कम 4-5 लीटर पानी प्रतिदिन पीना चाहिए। यदि आप सुबह जगने से रात्रि में सोने तक हर घंटे पर एक गिलास पानी पीयेंगे, तो दिन भर में 16 गिलास पानी पी लेंगे, जो लगभग 5 लीटर के बराबर होता है। इतने से ही आपकी समस्या हल हो जाएगी। इसमें कोई खर्च भी नहीं होगा और आॅपरेशन से बच जायेंगे।’

पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि जिस रोग के लिए डाक्टरों ने आॅपरेशन बताया है, वह केवल पानी से जा सकता है। लेकिन शायद यह सोचकर कि करके देखने में कोई हर्ज नहीं है, उन्होंने मेरी सलाह के अनुसार पानी पीना शुरू कर दिया। लगभग एक सप्ताह तक तो उन्हें कोई अन्तर मालूम नहीं पड़ा, लेकिन फिर उनका सिरदर्द कम होने लगा और 15-20 दिन में ही सिरदर्द बिल्कुल समाप्त हो गया। इससे साथ ही पेशाब में मवाद आने की शिकायत भी कम होने लगी और 1 माह में ही बिल्कुल ठीक हो गयी। गोपाल जी अब पहले से काफी स्वस्थ हो गये थे और उनकी कार्यक्षमता भी बढ़ गयी थी। उसके बाद मेरे सामने उन्हें स्वास्थ्य सम्बंधी कोई शिकायत नहीं हुई। इस अनुभव से मेरा विश्वास भी प्राकृतिक चिकित्सा में और दृढ़ हो गया। मैं स्वयं खूब पानी पीता था और सदा स्वस्थ और सक्रिय रहता था।

वाराणसी में हमारा कोई निकट रिश्तेदार नहीं था। केवल श्रीमती जी की मौसेरी बहिन श्रीमती विमला जी वाराणसी के मैदागिन क्षेत्र में गोलघर मुहल्ले में रहती थीं। उनके यहाँ हम खूब आते-जाते थे। उनका साड़ियों का अच्छा कारोबार था। उनके एक पुत्र है- बंटू और दो पुत्रियाँ हैं- मोनिका और भाव्या। आजकल बंटू व्यापार सँभाल रहा है। मोनिका का विवाह आगरा के एक जैन परिवार में हुआ है। उसके विवाह में शामिल होने केवल मैं वाराणसी से आगरा गया था। जब हम कानपुर आ गये थे, तब बंटू का विवाह हुआ था। उसमें हम सब शामिल हुए थे। उसके विवाह में अच्छी व्यवस्था थी। उसकी पत्नी भी एक घरेलू टाइप की अच्छी और सुन्दर लड़की है। विमला जीजी का पिछले वर्ष (2004 में) कैंसर से देहान्त हो चुका है। उससे कुछ माह पूर्व उनके पति का भी देहान्त हो गया था। उनकी छोटी पुत्री भाव्या का विवाह विमला जीजी के देहान्त के बाद ही हुआ, परन्तु हम उसमें शामिल नहीं हो सके।

इनके अलावा श्रीमती जी चचेरे भाई श्री अमीरचन्द गोयल (उर्फ अमीरो), जो आगरा में ट्रेवल एजेंसी चलाते हैं, प्रायः वाराणसी आया करते थे। उनका वाराणसी में हथुआ पैलेस स्थित पल्लवी इंटरनेशनल होटल में भी एक आॅफिस था। उस आॅफिस में एक मैनेजर, एक ड्राइवर और एक चपरासी नियमित रहते थे। अमीरो भाईसाहब बीच-बीच में वहाँ आते थे और एक होटल में कमरा लेकर रहते थे। बाद में जब हम कानपुर आ गये, तो उन्होंने वाराणसी का कार्यालय बन्द कर दिया।

इन दोनों के अलावा बीड़ी वाले मामाजी श्री श्रीनिवास गोयल, जिनका विस्तृत परिचय मैं भाग-1 में दे चुका हूँ, की एक भानजी भी वाराणसी में ब्याही हैं, जिनका नाम है श्रीमती अंजू अग्रवाल (उर्फ बबली)। उनके पति श्री दिलीप कुमार जैन (उर्फ बच्चा) साड़ी के कमीशन एजेंट हैं। उनके यहाँ भी हमारा आना-जाना था। बाद में बबली की एक छोटी बहिन का विवाह भी वाराणसी में हो गया था, जिसमें हम भी शामिल हुए थे। वाराणसी छोड़ने के बाद हमें उनका कोई समाचार नहीं मिला है।

मैं पहले लिख चुका हूँ कि आरोग्य मंदिर, गोरखपुर में अपने कानों की चिकित्सा कराने की मेरी बहुत इच्छा थी। इसीलिए मैं अपना विवाह कुछ महीने टालना चाहता था, परन्तु हमारी मम्मी इसके लिए राजी नहीं हुईं। विवाह के बाद मेरा विचार बना कि मार्च की लेखाबंदी के बाद मुझे श्रीमती जी के साथ आरोग्य मंदिर जाना चाहिए। बड़ी मुश्किल से श्रीमतीजी तैयार हुईं। तब मैंने आरोग्य मंदिर से पत्र-व्यवहार किया और अपनी पत्नी की गर्भावस्था का भी उल्लेख किया। वहाँ से उत्तर आया कि गर्भावस्था में प्राकृतिक चिकित्सा कराने में कोई कठिनाई नहीं होती है, बल्कि इससे प्रसव सामान्य होने में सहायता मिलती है और बच्चा भी स्वस्थ होता है। यह जवाब आने पर श्रीमती जी चलने को राजी हुईं थीं, हालांकि उनका प्राकृतिक चिकित्सा में बिल्कुल भी विश्वास नहीं था (और आज भी नहीं है)।

रामनवमी निकट थी। इसलिए हमने पहले अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि के दर्शन करके वहाँ से एक-दो दिन बाद गोरखपुर जाने का विचार किया। अयोध्या में मेरे गुरुतुल्य श्री विश्वनाथ दास शास्त्री का आश्रम है, इसलिए हमें ठहरने की कोई समस्या नहीं थी। सौभाग्य से हमारे वाराणसी मंडल के सहायक महा प्रबंधक श्री नरेन्द्र कुमार सूद बहुत सज्जन थे। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मुझे चिकित्सा के लिए अवकाश दे दिया और छुट्टियों को आगे हिसाब में लगा लेने की भी अनुमति दे दी, क्योंकि चिकित्सा मंें 2-3 माह लगने की संभावना थी और बैंक में केवल एक साल पुरानी नौकरी होने के कारण मेरे पास इतनी छुट्टियाँ नहीं थीं।

अपने साथ आवश्यक धन लेकर हम किसान एक्सप्रेस से अयोध्या पहुँचे। रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद हम जानकी घाट के लिए रिक्शा करना चाहते थे। लेकिन हमें यह अनुमान नहीं था कि रामनवमी पर अयोध्या में इतनी अधिक भीड़ होती है कि मुख्य मार्गों पर रिक्शे, ताँगे तथा अन्य वाहन नहीं चलने दिये जाते। किसी तरह एक रिक्शा 20 रुपये में तय हुआ, जो शहर के बाहरी भागों की जाने किन-किन गलियों में होकर हमें जानकी घाट तक ले गया। वहाँ शास्त्रीजी का आश्रम आसानी से मिल गया। वे हमें देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन दिनों उनके आश्रम में और भी बहुत से भक्त-यात्री आये हुए थे। इसलिए उन्होंने अपने ही कमरे में हमारे ठहरने की व्यवस्था कर दी। कुछ भोजन हम साथ लाये ही थे, कुछ शास्त्रीजी ने भी भिजवा दिया। उससे तृप्त होकर हम अयोध्या दर्शन के लिए निकल पड़े।

वहाँ हर मंदिर में बहुत भीड़ थी। श्रीराम जन्मभूमि पर हम भीड़ में पिसते हुए बड़ी मुश्किल से दर्शन कर सके। आसपास कुछ और मंदिर भी देखे, जैसे कनक भवन, हनुमान गढ़ी आदि। फिर आश्रम लौटे। दूसरे दिन प्रातः हम सरयू स्नान के लिए गये। वहाँ से सरयू कुछ दूर है, परन्तु हम पैदल ही गये और आये। सरयू में स्नान करके हमें बहुत प्रसन्नता हुई। हालांकि राम की पैड़ी में पानी के आवागमन का उचित प्रबंध न होने के कारण वहाँ के पानी में बदबू आ रही थी, परन्तु सरयू का जल शुद्ध था। अतः वहाँ आनन्दपूर्वक नहा लिये, हालांकि भीड़ वहाँ भी बहुत थी।

उसी दिन दोपहर से पूर्व एक चमत्कारिक घटना हुई। उस समय उसी आश्रम के दूसरे भाग में श्री गया प्रसाद मिश्र रहा करते थे। मेरा उनसे पूर्व परिचय था। वे पहले संघ के प्रचारक थे और योग की शिक्षा दिया करते थे। कुछ वर्ष पूर्व 1983 में प्रयाग में हमारा जो शीत शिविर लगा था, उसमें मैं और वे भी सम्मिलित हुए थे। वहीं मैंने उनसे योग के कुछ आसन और प्राणायाम सीखे थे। हालांकि वे मैं पहले से पुस्तकें पढ़कर जानता था, परन्तु उन्होंने प्रत्यक्ष ज्ञान दिया और अपने सामने कराकर भी देखे थे। बाद में उनकी रुचि योग-ध्यान में अधिक हो गयी, तो वे प्रचारक का दायित्व और संघकार्य छोड़कर हिमालयवासी स्वामी श्याम जी के शिष्य बन गये थे और अयोध्या में रहकर योग-ध्यान किया करते थे तथा जिज्ञासुओं को भी सिखाया करते थे। उन्होंने अपना नाम भी बदलकर ‘चैतन्य’ रख लिया था। स्वामी श्याम जी ने उन्हें डाक्टरेट की उपाधि प्रदान कर दी थी, इसलिए उस समय वे ‘डा. चैतन्य’ के नाम से जाने जाते थे और अब भी उसी नाम से प्रसिद्ध हैं। मुझे यह ज्ञात नहीं था कि वे उसी आश्रम में रह रहे हैं और उन्हें भी यह पता नहीं था कि मैं उस आश्रम में आया हुआ हूँ।

तभी ध्यान करते हुए उन्हें कुछ ऐसी अनुभूति हुई कि आश्रम में उनका कोई पूर्व परिचित ठहरा हुआ है। अतः वे अनायास ही शास्त्रीजी के कमरे की ओर आ निकले। वहाँ मुझे देखते ही उन्होंने पहचान लिया। मैं भी उन्हें वहाँ देखकर आश्चर्य में पड़ गया। फिर श्रीमतीजी से उनका परिचय कराया। वे बहुत प्रसन्न हुए। काफी बातें हुईं। उन्होंने मुझे ध्यान करने की प्रणाली बतायी, हालांकि मैं ज्यादा नहीं समझ पाया। साथ में उन्होंने कुछ किताबें भी दीं।

सायंकाल वे मुझे अपने साथ सरयू किनारे ले गये। उस समय वहाँ पूर्ण शान्ति थी। हमने वहाँ बैठकर काफी देर तक ध्यान किया। फिर लक्ष्मण किला मंदिर में एक सन्त से मिलने गये, जहाँ लड्डू खिलाये गये। वहाँ से हम अँधेरा होने तक वापस आये।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 30)

  • विजय भाई , आज का एपिसोड पड़ कर आनंद आ गिया , आप की वर्णन शैली बहुत अच्छी है और छोड़ने को मन मानता नहीं , हनुमान जयन्ती की आप को शुभकामनाएं .

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम भाई साहब ! अाभार !
      आपको भी हनुमानजयंती की हार्दिक शुभकामनायें !

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त का एक एक शब्द पढ़कर कृत कृत्य हुआ। आपका व्यक्तित्व बहुआयामी है। इसका ज्ञान आत्मकथा को पढ़कर हो रहा है। वर्णन शैली रोचक, सरल एवं सुबोध है। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      हार्दिक आभार, मान्यवर !

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