कविता

राष्ट्र वंदना

आज तेरा अभिषेक करूँ मैं
सप्तसिंधु के धारों से
हार तेरा मैं गुँथ लाऊँगा
सूरज-चाँद-सितारों से
पूरब-पश्चिम की लाली ले
तुझको हिना लगाऊँगा
सूर्य रश्मियों के कंगनों से
कर तेरे भर जाऊँगा
दूज-चाँद की नथनी तेरा
सुंदर रूप सँवारेगी
पैंजनियाँ गंगा-जमुना की
पग तेरे झनकारेगी
बाल अरुण की बिंदिया तेरे
भाल बीच मढ़ जाऊँ मैं
कमर चाँदनी में बिजुरी की
करधनिया पहनाऊँ मैं
वन-उपवन की सारी कलियाँ
गजरा बनकर करें सिंगार
बरखा-“शरद”-हेमंत-शिशिर संग
चँवर डुलाए मस्त बहार
मगर आलता श्री-चरणों का
कहीं नहीं जब पाता हूँ
मातृभूमि तेरे चरणों में अपना लहू चढ़ाता हूँ

शरद सुनेरी