हास्य व्यंग्य

नास्तिक या आस्तिक होना यूनियनबाजों का चकल्लस

आजकल नास्तिक लोग भी यूनियनबाजी पर उतर आए हैं। मेरा भी मन करता है कि स्वयं को नास्तिक घोषित कर नास्तिकों की यूनियन में सम्मिलित हो जाएँ। इधर नास्तिकों की एक बैठक की चर्चा जोरों से चल भी रही थी। वैसे भी, भगवान जी के सामने हाथ जोड़कर जब भी खड़ा होता हूँ, तो लगता है जैसे किसी नाटक में भाग ले रहा होऊँ ! भगवान जी हैं भी या नहीं, और अगर हैं भी तो मेरी विनती सुन रहे होंगे या नहीं हाथ जोड़े-जोड़े, इन्हीं प्रश्नों से दो-चार होता रहता हूँ. सोचता हूँ, नास्तिक हो जाने पर हाथ जोड़ने या भगवान बेचारे के होने न होने की सोच से मुक्ति मिल जाएगी और सबसे बड़ी बात तो स्वयं भगवान जी के लिए होगी हमारे जैसे अन्य नास्तिकों की बढ़ती संख्या से भगवान को भक्तों की अर्जियों के ढेर से मुक्ति भी मिलेगी. इन अर्जियों को पढ़ने और इसपर कार्यवाही हेतु अन्य देवताओं को मार्क करने में भगवान जी को काफी जहमत उठानी पड़ती होगी. मतलब, हमारे नास्तिक हो जाने का सबसे बड़ा लाभ स्वयं भगवान को ही मिलेगा.

एक बात है नास्तिक होना कोई हँसी-ठट्टा जैसा खेल नहीं है इसके लिए बकायदा दिमाग पर जोर डालना पड़ता है, फिर किसी बात की परवाह न करते हुए “इनकारी-स्वभाव” बनाना पड़ता है। हाँ जैसे “भई मैं इसमें विश्वास नहीं करता ” उसे तर्क पर तर्क करने में महारत हासिल होना चाहिए। मतलब नास्तिक अपनी बुद्धि का जबर्दस्त उपयोगकर्ता होता है। सभी चीजों का खंडन करता है। मंडन तो जैसे उसे आता ही नहीं। तो क्या नास्तिक अपनी बुद्धि में ही जीता है ? हाँ, नास्तिक अपनी बुद्धि में जीता हो या न जीता हो, लेकिन अपने में ही अवश्य जीता है। तर्कबुद्धि वाला अवश्य नास्तिक हो जाता है क्योंकि नास्तिक संसार को छील-छील कर देखता है। नास्तिक बाल की खाल निकाल-निकाल कर नास्तिक होते रहते हैं।

इधर आस्तिक चीजों को छीलकर देखने का आदी नहीं होता। वह भी छीलने वालों से चिढ़ता है इसीलिए वह सभी चीजों को स्वीकार करनेवाला होता है। उसकी अर्जी भगवान से लेकर हर उस जगह लगी होती है जहाँ से भी उसे कुछ मिलने की उम्मीद रहती है। अभी आप देखो, सत्तापक्ष के लोग आस्तिक होते हैं उनमें आशा की किरण छिपी होती है, वे नास्तिक नहीं होते। नास्तिक तो वही होता है जिसकी कहीं सुनी नहीं जाती, और इसी खिसियाहट में ऐसे लोग नास्तिक हो जाते हैं। मतलब नास्तिक होना एक प्रकार की खिसियाहट ही है।

एक हमारे बाबा थे, एक बार किसी बात पर अपने भगवान से गुसाए तो भगवान को ही कुएँ में फेंक दिए एकदम से नास्तिक होने के खिसियाहट भरे अंदाज में ! हालाँकि बाद में वे अपने भगवान के बिना परेशान भी हो उठे थे और अपने भगवान को खोजने के लिए कुँए में भी कूदने के लिए तत्पर हो उठे थे। वे मेरे बाबा बहुत साधारण सपनों वाले इंसान थे इसीलिए अपने भगवान के बिना बेचैन हो उठे थे। मतलब बड़े सपनों वाले लोग काम बनता न देख भी नास्तिक हो जाते हैं और यही लोग काम की चिन्ता से मुक्त हुए तो, इसी अपने नास्तिकता के कुँए से भी अपना भगवान खोज लाते हैं।

कभी-कभी आस्तिकों की मौज देख लोग नास्तिक बन जाते हैं ! मैंने एक व्यक्ति को पूजा-पाठ करने वालों से बहुत चिढ़ते हुए देखा था, वे आस्तिकों के बारे में कहते थे कि , “ये खाए-पिए अघाए लोग हैं।” बात सही भी है, ये चिढ़ने वाले तो दिनभर अपनी आइडियाबाजी से फुर्सत ही नहीं पाते कि कुछ करके आस्तिकों जैसा सुख लूटें सो दिन भर आस्तिकों से ही खुन्नस निकालते रहते हैं। और इसी खुन्नस में अपनी नास्तिकता भी प्रदर्शित करते हैं और पीठ पीछे दिन रात माला भी जपते रहते हैं कि हे भगवान हमारे दुख-दलिद्दर काटो। खैर.

कुछ लोग मानते हैं कि, जो काम करने में ही विश्वास करता है वही नास्तिक होता है । ये ल्लो, मैं तो यही मानता आया हूँ, जिसके अन्दर किसी भी तरह का विश्वास का कीड़ा होगा वह आस्तिक ही होगा. नास्तिक तो, विश्वास विहीन जीव होते हैं, ये किसी बात पर विश्वास नहीं करते। फिर ये कर्म पर कैसे विश्वास करेंगे? चार्वाकी तो नास्तिकों के मसीहा माने जा सकते हैं! अगर ये कर्म पर विश्वास कर रहे होते तो “ॠणं कृत्वा घृतम् पीवेत” का उपदेश न दिए होते। नास्तिक कुल मिलाकर मौज करने वाले लोग ही होते हैं, और दूसरे के फटी में अपनी टाँग अड़ाकर मौज लेते रहना, कर्ज लेकर घी पीना इनकी आदत में शुमार होता जाता है। मतलब कर्जदारी में होना भी नास्तिक होने का एक लक्षण ही है।

लेकिन आप मानो या न मानो यह आपकी मर्जी, नास्तिक होता है बहुत भावुक इंसान ! इसे बात-बात पर रोना आता है लेकिन ये दूसरों को रुला नहीं पाते दूसरों को रुला न पाने की अक्षमता के कारण अकसर ये अपने को उपेक्षित ही समझते हैं अब यह इनकी अपनी समझ है, इसपर हम क्या कहें । खैर, ये अकसर आस्तिक या कहें भगत विरादरी से परेशान होकर रोते रहते हैं यहाँ भगत विरादरी भी कम चालू नहीं है. यह बिरादरी अपनी आस्तिकता खूब पहचानती हैं ये लोग अपनी आस्तिकता के बल पर जब चाहें जिसको रुला देते हैं, हाँ केवल पहले रोना शुरू करके !

ये आस्तिक या कहें भगत, अपनी भावना रूपी पतवार को थाम कर भवसागर में उतरते हैं और और बाद में किसी चट्टान जैसे टापू की त्वरित पहचान कर उसपर शरण ले वहीं से भवसागर में तिरते लोगों को भक्ति-भावित कर भवसागर पार कर लेने का सब्जबाग दिखा दिखाकर इस सागर में उनसे हाथ पैर चलावाते रहते हैं ये हाथ-पैर चलाने वाले इसके सिवा कुछ कर भी नहीं सकते क्योंकि भगत की वंशी की धुन जो बड़ी प्यारी होती है. ! हाँ, एक बात है ये भगत और कोई नहीं स्वनामधन्य घोषित आस्तिक ही होते हैं, जिनके आनंदित हो कर बंशी बजाने के सुख से कोई असुखी अपने को नास्तिक घोषित कर लेता है। और ये नास्तिक लोग भवसागर में जाने से कतराते भी हैं तथा घोषित आस्तिकों की, किनारे बैठे लानत-मलामत करते रहते हैं। मतलब यहाँ एक बात और स्पष्ट होती है, वह यह कि, नास्तिक होना या आस्तिक होना केवल कुछ लोगों का ही काम है, हम यह भी कह सकते हैं, जिसका काम बन जाए वह आस्तिक और जिसका काम न बन पाए वह नास्तिक ! यही है नास्तिक-आस्तिक का खेल बाकी तो सब अपने-अपने तईं, भवसागर में ही डूबते उतराते रहते हैं।

मैंने शुरू में कहा था न कि मैं भी थोड़ा-बहुत अपने को नास्तिकता की श्रेणी में डाल दूँ ! लेकिन मुझ पर तब कुछ ज्यादई दिमागदार होने का आरोप चस्पा होगा या फिर मेरा कोई काम गड़बड़ा गया है बताया जाएगा। लेकिन, यहाँ मैं अपनी सफाई में कहना चाहता हूँ कि भइए! ऐसा कुछ नहीं है हाँ, रोज-रोज की चिक-चिक से मुक्ति पाना चाहता हूँ कि लो अब सारा टंटा खतम, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी कहो अब सेकुलर-सेकुलर ! मैं तो बन गया नास्तिक तो अब सेकुलर काहे का. ? अब मैं कहाँ धर्मनिरपेक्ष रहा ? मैं तो अब नास्तिक-धर्मी हुआ ! तुम तो अपने ईश्वर, गाड, भगवान, अल्ला को पकड़े रहो मैं तो सब छोड़कर नास्तिक बनने चला ! सेकुलरता के दिखावे से पिंड भी छूट जाएगा।

अब मैं भगवान को ही नहीं मानता उन बेचारे को तो मैं नास्तिकता के कुँए में फेंक आया अब न तुम्हारी ईद की सिवईया खाऊँगा और न रोजा-इफ्तार में जाऊँगा और न ही तिलक लगाकर किसी गंगाघाट या मूर्ति के आगे शीश झुकाउंगा इस नास्तिकता से सेकुलर दिखने का सारा झगड़ा-टंटा खतम देख लेना एक दिन सभी सेकुलर खेमे के लोग ऐसेई अपने को नास्तिक घोषित कर देंगे ! और तो और नास्तिक घोषित हो जाने से भगत होने जैसे आरोप से भी मुक्ति पा जाएंगे बाम-दक्षिण का भी विवाद खतम । यहाँ एक बात और है, भगवान को कुएँ में फेंक देना ही नास्तिकता नहीं है, किसी खाते-पीते को देखकर चिढ़ जाना भी नास्तिकता ही है, लगे हाथ इसी के साथ गरीबों के मसीहा भी सिद्ध मान लिए जाएंगे। बहुत फायदेमंद है नास्तिक होना।

लेकिन नास्तिकों को यूनियनबाजी की क्या जरूरत. ? अरे भाई! बिना यूनियनबाजी के कोई जान नहीं पाएगा कि हम भी नास्तिक हैं या नास्तिक होने का कोई लाभ समझ में भी नहीं आएगा। अकेले में बने रहिए नास्तिक. किसी का क्या जाता है ! वैसे भी, आजकल संघ का जमाना है दल का जमाना है. संघ बनाकर लोग मौज तो कर ही सकते हैं, तो नास्तिकों को इकट्ठा होना ही पड़ेगा, यूनियनबाजी करनी ही होगी।

वाकई! यह एक दिव्य सोच है. अपने को नास्तिक घोषित कर देना. आखिर, है कोई माई का लाल जो अपने को आस्तिक घोषित कर दे? आस्तिकता कोई घोषित करने वाली चीज नहीं है जैसे प्रकृति कुछ भी घोषित नहीं करती। घोषित तो रेयर वाली चीज होती है आस्तिकता रेयर वाली चीज नहीं है, रेयर तो नास्तिकता ही है! इसीलिए जब घोषित होगी तो नास्तिकता ही। हाँ, नास्तिक घोषित कर देने का यही उचित मौसम भी है और नास्तिकों के यूनियनबाजी का भी। यह जरूरी है ; मान लो, गलती से किसी सम्प्रदाय के चेले-चपाटों के बीच उनसे पाला पड़ गया और गलती से उन्हें नास्तिकता की झाड़ पिलाई तो फिर बड़ी पल्लई होगी ! फिर तो वहाँ साम्प्रदायिक ही घोषित करा दिए जाएँगे, दंगा हो जाएगा ! तब क्या होगा ? तब यही नास्तिकों की यूनियन हमारे काम काम आएगी, तब सभी नास्तिक मिलकर हमें आरोपमुक्त कराएंगे, दंगाइयों से बचाएंगे। इसीलिए नास्तिकों के यूनियन की जरूरत है, इस यूनियन की बैठक होनी भी जरूरी है। भाई! नास्तिक होने की यही राजनीति है हम तो नास्तिकता की राजनीति करेंगे।

लेकिन हम तो ठहरे साधारण लोग. हम कोई आइडियाबाज भी नहीं है और न ही किसी ऊँचे ख्वाब में जीने वाले लोग, तो क्यों अपने को आस्तिक या नास्तिक घोषित कर यूनियनबाजी का चक्कर पालें? यूनियनबाज ही घोषणाएँ करते हैं और किसी घोषणा की सफलता के लिए यूनियनबाजी की दरकार होती है। मतलब यूनियनबाजी का चक्कर हर जगह है. सोच रहा हूँ इस पचड़े में पड़ने से बेहतर सलाहियत मेरे लिए यही होगी कि. जब यूनियनबाजी ही करनी है तो नास्तिक होने से बेहतर “सेकुलर” ही बने रहना है और सेकुलरों का बना बनाया यूनियन भी मिल जाता है ! . इसमें साम्प्रदायिक होने का कम से कम कोई खतरा भी नहीं होता। तो भाई लोग, “सेकुलर” होने का विकल्प “नास्तिक” होने में मत तलाशो यह ठीक नहीं आज की राजनीति में “सेकुलरता” ही उम्दा माल है ! नहीं तो, जिसके लिए तुम नास्तिक बन रहे हो वही तुम्हें साम्प्रदायिक घोषित करा देगा।

इधर नास्तिक के कुँए में फेंके गए मेरे भगवान जी मुझे याद आने लगे हैं. मुझे उनकी कमी अखर रही है. मिल जाएँ तो कम से कम उन्हें पकड़ कर दो बूँद आँसू ही गिरा लूँ. मन बड़ा भावुक-भावुक सा हो रहा है इतनी राजनीति मैं संभाल नहीं पाउँगा. मेरे ख्वाब बड़े नहीं हैं। मुझे नास्तिक या आस्तिक होने में कोई दिलचस्पी नहीं है क्योंकि मैं यूनियनबाज भी नहीं हूँ.

विनय कुमार तिवारी

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.