कविता

हास्य कविता

मेरे एक मित्र सकंट की इस घड़ी में
न मिलने से कोई हंजाम
श्रृंगार न अपना करवा सके
हैं तो साठ साला से ऊपर
पर रहते हैं चालीस साला से बनके
लगा के खिजाव अपने बालों को
रखते हैं काले सदा
जिससे लगता नहीं है अंदाज़ उनकी उमर का
हा जनाब तो मैं कह रहा था
हंजाम न मिलने के कारण
और प्रसाधनों की उपलब्धता न होने के कारण
वो करा न सके अपने केस मर्दन
केश हो गए बड़े बड़े
रंग भी नैसर्गिकता को पा गया
थैला बगल में एक दिन लटकाकर
निकले वो घर से राशन पानी की फ़िराक में
अपनी गली से जब वो गुजरे
पड़ोसन बोली ए बाबा क्या खाने को मिला नहीं कुछ
आइए कर लीजिए अन्न मेरे घर का ग्रहण
लगता है आप भी हैं फंस गए
गांव न अपने जा सके हैं
पर चेहरे से तो जाने पहचाने से लगते हैं
अरे आप तो पड़ोस के रामलाल हैं
ये कैसा हुलिया आपने है बनाया
मैं तो लजाती थी देखकर आपको
आप तो  थे बांके जवा
सारा मोहल्ला ही यही समझता
पर आप तो दिखते मेरे पिता के हम उमर
बड़ा भ्रमित आपने कर रखा
लेकिन आप इन सफेद वालों में
पहले से भी सुंदर दिख रहे
गौर वर्ण पर गौर कैश क्या आभा बिखेर रहे
आप अब पहले से ज्यादा हसीं और जवां दिख रहे
जब ये किस्सा मित्र ने आकर मुझे सुनाया
हंसा मैं खिलखिला कर जोर से
बोला समझ में आया कि अभी भी नहीं आया
वास्तविकता को स्वीकार कर व्यवहार  करना चाहिए
जवां थे तो जवानों की तरह रहे
अब अपनी उम्र का ख्याल रखना चाहिए

ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020