गीत/नवगीत

अपना-अपना धर्म

तुम अपना धर्म निभाओ, मैं अपना धरम निभाऊँ
देवों के चरण पखारो तुम, मैं मानव पर मिट जाऊँ।

जब शूल भेदते पग तो, आँखें नम हो जाती हैं
पीड़ा उठती अंतर में, लेकिन वाणी गाती है
जिनने सींचा सब देकर, कैसे उनको बिसराऊँ?
तुम अपना धर्म निभाओ, मैं अपना धरम निभाऊँ

जब घर में आग लगी हो, तब कंठ कहाँ गाते हैं?
पतझड़ के मौसम में भी, कब मधुबन मुसकाते है?
जब अपने दुख में हो तो, कैसे मैं सुर-देव रिझाऊँ?
तुम अपना धर्म निभाओ, मैं अपना धरम निभाऊँ

उस पूजा का क्या मतलब, जब मात-पिता रोते हों
उस घर से मरघट अच्छा; जहाँ रिश्ते दहन होते हों
मैं पूजन कर अपनों का, घर को मंदिर-सा बनाऊँ।
तुम अपना धर्म निभाओ, मैं अपना धरम निभाऊँ

बेकाम की है वह दौलत, अपनों के काम न आये
वह जीवन भी क्या जीवन, जो संबल न बन पाये
मैं बाल के नेह का दीपक, आँगन में रोज सजाऊँ।
तुम अपना धर्म निभाओ, मैं अपना धरम निभाऊँ

शरद सुनेरी