कविता

गांव छोड़ दिया

 

जिम्मेदारियों को
बस की छत पर पटक
हम चढ़ नहीं पाए बस में
फिर लिए लटक
लंबी सड़कों बड़ी इमारतों की
खाक छान ली
भटकते हुए शहर में
हमने एक बात मान ली
पैसा कमाने के लिए यहां
एक जगह पेड़ की तरह गड़ना पड़ता है
रोटी के लिए मारामारी इधर भी है
यहां पर भी लड़ना पड़ता है
कामयाबी हम इधर ही पाएंगे
खाली हाथ वापस लौट कर नहीं जाएंगे
हां जिम्मेदारियां उम्र खा जाती हैं
चेहरे पर झुर्रियां आ जाती हैं
गांव के छोटे सपने धूमिल हो कर खो गए
हां !इधर जीवन की आपाधापी में
हम शहर के ही हो गए

प्रवीण माटी

प्रवीण माटी

नाम -प्रवीण माटी गाँव- नौरंगाबाद डाकघर-बामला,भिवानी 127021 हरियाणा मकान नं-100 9873845733