लघुकथा

समय रुकता नहीं

 

बचपन में पिता,तरुणावस्था में मांँ को खोने के बाद
शीला ने खुद को संभालने का हर जतन किया। मगर शायद उसकी किस्मत भी उससे खिलवाड़ कर रही थी।
चाचा चाची ने उसे बड़े लाड़ प्यार से रखा था, मगर वह जैसे टूट सी चुकी थी।
उसकी बुआ थोड़े दिन के लिए अपने साथ अपने घर लिवा ले गयीं कि शायद जगह माहौल बदलने से उसे संभालने में मदद मिल सके।
बुआ की युवा बेटी लिया शादी के तीन माह बाद ही विधवा हो गई थी, और ससुराल वालों ने मनहूस कहकर उसे मायके भेज दिया था।
रिया हर समय शीला के साथ ही रहती, उसे समझाती, पढ़ाई में ध्यान लगाने और कुछ करने को उत्साहित करती। क्योंकि वो स्वयं भी अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कटिबद्ध थी।
वो शीला को बार बार समझाती कि समय रुकता नहीं है, ये भी समय चला जायेगा। दुख सुख जीवन का हिस्सा है, इससे कोई बचा नहीं है। इसीलिए हर समय रोना धोना छोड़कर अपने भविष्य को संवारने की दिशा में आगे बढ़ो। यदि तुम मामा मामी की आत्मा की शांति चाहती हो, तो कुछ ऐसा करो कि वे जहां भी होँ, अपनी बेटी पर गर्व कर सकें।
मुझे देखो। नियति को जो मंजूर था वो तो हो गया, लेकिन जीना है, तो सच स्वीकारना ही होगा। मैं विधवा होकर यदि हर समय विधवा विलाप ही करती रहूँ, तो क्या मेरा पति जीवित हो जायेगा। नहीं, लेकिन मेरे मम्मी पापा घुट घुटकर जरुर मर जायेंगे।
समय के साथ चलना सीखना पड़ता है, खुद चलना पड़ताहै, समय किसी का इंतजार नहीं करता। न समय कभी रुका है,न ही रुकेगा। पिछला समय भी तो आखिर चला ही गया न। तो ये समय भी चला जायेगा।
अब ये तुम्हें सोचना है कि रो रोकर जीना है या समय के साथ आगे बढ़ना है।
शीला की आंखों से आँसूओं की गंगा जमुना बह रही थी।
उसने लिया को आश्वस्त किया कि अब वह  समय के साथ ही आगे बढ़ेगी। और जल्दी से अपने आँसू पोँछ लिए।

 

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921