सामाजिक

वर्षा ऋतु : उत्सव और उल्लास का प्रतीक

वर्षा ऋतु का मौसम हो,और हिंदी साहित्य के कवियों का जिक्र न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता।इनके जिक्र के बिना तो यह मौसम भी अधूरा है।चाहे वह कोई भी मौसम हो।ग्रीष्म हो,वर्षा हो,शीत हो,शिशिर हो,हेमंत हो या वसंत सभी मौसम में हमारे कवियों की लेखनी जम के चली है,और आबाध
गति से चली है।और उनकी लेखनी किसी काल, युग में ही नही चली बल्कि
सभी कालों में चली है।
हिंदी साहित्य के इतिहास पर जब हम
दृष्टि डालें और पन्ना पलटाएं तो हमे ज्ञात होगा की,आदि काल,भक्ति काल,रीति काल,और आधुनिक काल सभी कालों के कवियों ने ऋतुओं के वर्णन में अपनी सारी शक्ति लगा दी है।और ऐसा जीवंत चित्रण किया की हमारी नजरों के आगे  चित्र झलकने लगता है।हमारे साहित्य के मनीषयों ने मौसम को आधार मानकर जो साहित्य सृजन किया वह हमारी हिंदी साहित्य के लिए अनमोल धरोहर के रूप में मानी जाती है।जिनके वर्णन में रस,छंद,अलंकार,शब्द शक्ति को समृद्ध तो किया ही।इसके अलावा जीवन के सुख दुख, अंतर्मन की व्यथा,संयोग,वियोग,प्रेम,श्रृंगार,रीति,
नीति आदि पर भी बहुत सुंदर चित्रण किया गया है।जो हमारी साहित्य के लिए अद्वितीय और अनमोल कृति है।इनके मौसम पर सुंदर चित्रण होने से मौसम भी उपकृत हुआ और सौंदर्य भी खिल
उठा।इनके वर्णन से ही हमने प्रकृति के अद्भुत और अलौकिक सौंदर्य को नजदीक से जाना,समझा,परखा,और इसे महासुसा भी।इसीलिए तो हमारे कवियों ने कभी नियति नटी,तो कभी प्रकृति सुंदरी,तो कभी वर्षा सुंदरी,तो कभी,बरखा बहार,आदि आदि न जाने क्या क्या रूपक,और उपमा में नही बांधा।कुल मिलाकर अलंकारों से ऐसा रंग भरा की यह मौसम सोलह श्रृंगारों से सुसज्जित हो गई।और हमारा मन बर्बस ही उस और खींचता चला गया।
षड ऋतुओं में ऐसा कोई मौसम नही बचा जिस पर वर्णन न हुआ हो।
बात करते है वर्षा ऋतु की। और कहीं सावन का मास हो तो,सावन का झूला झूले बीना ही तन मन पेग भरने लगता है।और झूला बिना सावन अधूरा लगता है।रही बात वर्षा की तो
इसकी बात ही अलग है।वर्षा का नाम आते ही तन मन रोमांच से भर जाता है।
वर्षा की ठंडी ठंडी फुहार,
बूंदों की पड़ी है बौछार,
मौसम में आई खुमार,
हरियाली लायी बहार,
नदिया झरना की धार,
मन मयूरा प्रफुल्लित हो जाता है।
हमारा पांव बरखा की बूंदों में
भीगने के लिए अनायास बेचैन
हो उठता है।
तभी तो कवि सेनापति जी कहते हैं:
दामिनी दमक, सुरचाप की चमक।
श्याम घटा की घमक अति घनघोर तै।।
कोकिला,कलापी कल कूजत हैं जित-तित।
सीतल है हीतल, समीर झकझोर तै॥
मलिक मोहम्मद जायसी ने भी वर्षा ऋतु का अद्भुत वर्णन किया है जिसमे उन्होंने वर्षा के आगमन पर धरती,आकाश की सुंदरता बढ़ गई है।धरती में हरियाली छा गई है।वे आगे कहते हैं एक विरही रात्रि में प्रीतम की याद में,जाग जाती है,उसी समय बादल गरजता है,और वह चौंक कर भयभीत हो जाती है:
रितु पावस बरसै, पिउ पावा।
सावन भादौं अधिक सोहावा॥
पदमावति चाहत ऋतु पाई।
गगन सोहावन, भूमि सोहाई॥
रँग-राती पीतम सँग जागी।
गरजे गगन चौंकि गर लागी॥
ऋग्वेद में भी वर्षा ऋतु को एक उत्सव के रूप में बताया गया है,जो हरी भरी हरियाली के साथ एक होकर अपनी प्रसन्नता जाहिर की है:
ब्राह्मणासो अतिरात्रे न सोमे सरो न पूर्णमभितो वर्दन्तः।।
संवत्सरस्य तदहः परि छु यन्मण्डूकाः प्रावृषीण बभूव।।
रामचरित मानस के किष्किंधा कांड में तुलसी दास जी ने भी वर्षा ऋतु का बहुत सुंदर वर्णन किया है,जो देखते ही बनता है जिसमे वर्षा का वर्णन करते हुए श्री राम जी अपने भाई लक्ष्मण जी से रीति और नीति धर्म की बात कही है:
कहत अनुज सन कथा अनेका।
भगति बिरत नृपनीति बिबेका॥
बरषा काल मेघ नभ छाए।
गरजत लागत परम सुहाए॥
इसी प्रकार रूपक अलंकार का प्रयोग करते हुए वर्षा ऋतु का कितना सुंदर वर्णन हुआ है जिसमे धरती जब हरी भरी हरियाली से सुसोभित हो जाती है तो ऐसा लगता है जैसे साधक गण ज्ञान प्राप्त कर लिए हों।
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई।
बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका।
साधक मन जस मिलें बिबेका॥1॥
हिंदी साहित्य के इतिहास में जितने भी काल हुए उन सभी कालों के कवियों ने वर्षा ऋतु के वर्णन में कोई कोर कसर नही छोड़ी,और इसे एक पर्व,एक उत्सव,एक उल्लास के रूप में अपनी लेखनी चलाई।
आधुनिक काल के कवियों ने भी इसका वर्णन करने में नही चुके।और इसके सौंदर्य का खूब चढ़ बढ़कर वर्णन किया है जिसमे पंत जी ने कहा है की वर्षा के आगमन होने से प्रकृति का नजारा ही बदल जाता है,प्रकृति में नित नूतन परिवर्तन हो रहा है।जिसको देखकर तन मन में आनंद और उल्लास से भर जाता है:
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्‍तेजित कर
इसी प्रकार नागार्जुन कवि ने भी वर्षा ऋतु का वर्णन पर्वतों के शिखर में घिरते हुए बादलों का किया है;
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोट मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
इस प्रकार से यह कहा जा सकता है की वर्षा ऋतु का जितना भी वर्णन किया जाए वह कम है।पर इतना तो कहा जा सकता है की यह वर्षा ऋतु जीवन का एक उत्सव है,एक उल्लास है,एक उमंग है,खुशियों की बौछार है।जिसमे बिना भीगे भी तन मन रोमांच से भर जाता है।
हमारे कवियों ने इसे उत्सव के रूप में देखा,और इस उत्सव को अपनी कविता के रूप में वर्णन किया।और हमारी हिंदी साहित्य को उपकृत किया,समृद्ध किया।

— अशोक पटेल “आशु”

*अशोक पटेल 'आशु'

व्याख्याता-हिंदी मेघा धमतरी (छ ग) M-9827874578