कविता

बच जाता न

उसकी हालात परखने में
अपनी व्यस्तता
स्वयंसिद्ध कर
विफलताओं पर परिचर्चा
में उड़ेल आते हो
अपना असीम समय,
हर बार रूखी सी
एक और परत थोप
आते हो उस छाती पर जो
बंजर ही होने को है
अब बरसाती दिनों में भी
वह अनभिज्ञ रहता है
छाती की नमी से
उसने नमी कब और कहां
महसूस किया
उसे याद तक नहीं
हां ! कभी कभी देखता है
नमी को पिता के
माथे से झूलते,
मां के आंखो के नीचे
कई रेखाओं को भेदते
नमी की परिभाषा उसके
लिए हमेशा ही झूठी रही
उसने नमी को शुष्कता
उपजाते देखा
इसके बावजूद भी उसने
भीतरी दीवारों को रेतीला
होने से बचाया
जिस नमी से वह
परिचित हुआ,
उसे सहेजे रखा इन्हीं
दीवारों की नीव में
ताकि जब दीवारें ध्वस्त हो
तो नमी साबुत रहे उसी
रूप में जैसा देखा गया था।
चौराहों पर बैठ बड़ी बड़ी
मुद्दों पर बहस भी
कर ले रहा है
ऐसे जैसे गहरा रहा हो
इससे नाता गौर करना
वह पहले से
ज्यादा हंस रहा है
शायद ऐसा वह
सिर्फ कर रहा है
मन की फांक से शुष्कता
के रिसाव पर पैबंद
लगाने के लिए
क्योंकि ना पिता ने
शुरुआत में नमी की
सच्चाई बताई
और ना ही आज कोई कन्धा
बहना चाह रहा उसकी
शुष्कता में काश थामने की
भी एक विकल्प होती
उन आंखों में ,जिनकी
जुबान पर ही मस्तिष्क है
तो ध्वस्त होने से बच
जाता न वह हताश युवा
और उसके कई विकल्प।

— क्षमा शुक्ला

क्षमा शुक्ला

औरंगाबाद बिहार