स्वास्थ्य

स्वावलम्बी अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियाँ मौलिक है वैकल्पिक नहीं

रोग की अवस्था में आयुर्वेद के सिद्धान्तानुसार शरीर में वात, पित्त और कफ का असन्तुलन होने लगता है। आधुनिक चिकित्सक को मल, मूत्र, रक्त आदि के परीक्षणों में रोग के लक्षण और शरीर में रोग के कीटाणुओं तथा वायरस अथवा शरीर के तंत्रों में अवरोध दृष्टिगत होने लगते हैं। प्राकृतिक चिकित्सक ऐसी स्थिति से शरीर के निर्माण में सहयोगी पंच महाभूत तत्त्वों- पृथ्वी, पानी, हवा, अग्नि और आकाश का असन्तुलन अनुभव करते हैं। चीनी एक्युपंक्चर एवं एक्युप्रेशर के विशेषज्ञों के अनुसार शरीर में यिन-यांग का असंतुलन हो जाता है। एक्युप्रेशर के प्रतिवेदन बिन्दुओं की मान्यता वाले थैरेपिष्टों को व्यक्ति की हथेली और पगथली में विजातीय तत्त्वों का जमाव प्रतीत होने लगता है। सुजोक बियोल मेरेडियन सिद्धान्तानुसार रोगी के शरीर में पंच ऊर्जाओं (वायु, गर्मी, ठण्डक, नमी और शुष्कता) का आवश्यक सन्तुलन बिगड़ने लगता है। चुम्बकीय चिकित्सक शरीर में चुम्बकीय ऊर्जा का असन्तुलन अनुभव करते हैं। ज्योतिष शास्त्री ऐसी परिस्थिति का कारण प्रतिकूल ग्रहों का प्रभाव बतलाते हैं। आध्यात्मिक योगी ऐसी अवस्था का कारण पूर्वाजित अशुभ असाता वेदनीय कर्मों का उदय मानते हैं। होम्योपेथ और बायोकेेमिस्ट की मान्यतानुसार शरीर में आवश्यक रासायनिक तत्त्वों का अनुपात बिगड़ने से ऐसी स्थिति उत्पन्न होने लगती है। आहार विशेषज्ञ शरीर में पौष्टिक तत्त्वों का अभाव बतलाते हैं। शरीर में अम्ल-क्षार, ताप-ठण्डक का असन्तुलन बढ़ने लगता है। कहने का आशय यही है कि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियाँ अपने-अपने सिद्धान्तों के अनुसार शरीर में इन विकारों की उपस्थिति को रोग अथवा अस्वस्थता का कारण मानते हैं। जो जैसा कारण बतलाता है, उसी के अनुरूप उपचार और परहेज रखने का परामर्श देते हैं। सभी को आंशिक सफलताएँ भी प्राप्त हो रही है तथा सफलताओं एवं अच्छे परिणामों के लम्बे-लम्बे दावे अपनी-अपनी चिकित्सा पद्धतियों के सुनने को मिल रहे हैं। विज्ञान के इस युग में किसी पद्धति को बिना सोचे-समझे अवैज्ञानिक मानना, न्याय-संगत नहीं कहा जा सकता।
शरीर में आपसी तालमेल कितना अच्छा?
चलने-फिरने में कष्ट का अनुभव करने वाले व्यक्ति मरणांतिक संकट उत्पन्न होने पर कैसे दौड़ने लगते हैं? यदि हमारे शरीर के किसी भाग में कोई तीक्ष्ण वस्तु जैसे पिन, सूई, काँटा आदि चुभ जाए तो सारे शरीर में छटपटाहट होने लगती है। आँखों में से पानी आने लगता है, मुँह से चीख निकलने लगती है। शरीर की सारी इन्द्रियाँ और मन अपना कार्य रोककर क्षण भर के लिए उस स्थान पर अपने ध्यान को केन्द्रित कर देते हैं। उस समय न तो मधुर संगीत सुनना ही अच्छा लगता है और न मनभावन सुन्दर दृश्यों को देखना। न हँसी मजाक अच्छी लगती है और न अपने प्रियजन से बातचीत अथवा अच्छे से अच्छा खाना-पीना आदि। शरीर का पूरा प्रयास सबसे पहले उस चुभन को दूर करने में लग जाता है। जैसे ही चुभन दूर होती है, हम राहत का अनुभव करते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि चाहे चुभन हो या आंखों में कोई बाह्य कचरा चला जाए अथवा भोजन करते समय गलती से भोजन का कोई अंश भोजन नली की बजाय श्वास नली में चला जाए तो शरीर तुरन्त प्रतिक्रिया कर उस समस्या का प्राथमिकता से निवारण करता है। जिस शरीर में इतना आपसी सहयोग, समन्वय, समर्पण, तालमेल एवं अनुशासन हो अर्थात् शरीर के किसी भाग में पीड़ा अथवा दुःख से सारा शरीर दुःखी हो तो क्या ऐसे शरीर में कोरोना, मधुमेह, बी.पी. या डॉक्टरों द्वारा किसी भी नाम विशेष द्वारा पुकारे जाने वाले छोटे-बडे़ अकेले नामधारी रोग पनप सकते हैं?
चिकित्सकों द्वारा जिन लक्षणों के आधार पर रोगों का निदान और नामःकरण किया जाता है, वे शरीर में अकेले ही रोग नहीं होते, अपितु अनेक रोगों के परिवार के नेता होते हैं, जिन्हें सैकड़ों अप्रत्यक्ष सहायक रोगों का समर्थन प्राप्त होता है। परन्तु आज निदान एवं उपचार करते समय प्रायः चिकित्सकों का अप्रत्यक्ष रोगों की तरफ ध्यान ही नहीं जाता और न वे अप्रत्यक्ष रोगों को रोग मानते हैं। सहयोगी रोगों की उपेक्षा कर रोग से पूर्ण रूप से मुक्त करने का दावा खोखला लगता है। ऐसा निदान और उपचार अधूरा ही होता है।
प्रभावशाली उपचार हेतु स्वयं की क्षमताओं का सदुपयोग आवश्यक
जब तक अपनी क्षमताओं का सही उपयोग नहीं होगा, दुःख और रोग के कारणों को नहीं समझा जाएगा तब तक हमारा जीवन अमर्यादित, अनियन्त्रित, लक्ष्य-हीन, स्वच्छन्द, असंयमित होने से स्थायी स्वास्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् रोग मुक्त जीवन नहीं जी सकता। मृत्यु के लिए सौ सर्पो के काटने की आवश्यकता नहीं होती। एक सर्प का काटा व्यक्ति भी कभी-कभी मर सकता है। ठीक उसी प्रकार कभी-कभी बहुत छोटी लगने वाली हमारी गलती अथवा उपेक्षावृत्ति भी भविष्य में रोग का बहुत बड़ा कारण बन जीवन की प्रसन्नता-आनन्द सदैव के लिए समाप्त कर देती है।
उपचार में दुष्प्रभावों की उपेक्षा भविष्य में ज्यादा खतरनाक
राहत का मतलब होता है कि किसी भी विधि द्वारा रोग के प्रभाव को तुरन्त कम करना जिससे दर्द, पीड़ा, बेचैनी कम हो जाए एवं शरीर में सहनीय स्थिति उत्पन्न हो जाए। अर्थात् राहत की प्राथमिकता रोग को दबाने अथवा असक्रिय करने तक सीमित होती है, न कि रोग को जड़ से मिटाने अथवा निष्क्रिय करने की।
स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियों का सिद्धान्त
शरीर में रोग के अनुकूल दवा बनाने की क्षमता होती है और यदि उन क्षमताओं को बिना किसी बाह्य दवा और आलम्बन विकसित कर दिया जाता है तो उपचार अधिक प्रभावशाली, स्थायी एवं भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों से रहित होता है। शरीर का विवेक पूर्ण सजगता के साथ उपयोग करने की विधि स्वावलम्बी जीवन की आधारशिला होती है। मानव की क्षमता, समझ और विवेक जागृत करना उसका उद्देश्य होता है। उपचार में रोगी की भागीदारी मुख्य होती है। अतः रोगी उपचार से पड़ने वाले प्रभावों के प्रति अधिक सजग रहता है, जिससे दुष्प्रभावों की सम्भावना प्रायः नहीं रहती। ये उपचार बालक, वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित, गरीब-अमीर, शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी न रखने वाला साधारण व्यक्ति भी आत्मविश्वास से स्वयं कर सकता है।
स्वावलम्बी चिकित्सा में उपचार की समग्रता का दृष्टिकोण
एक्युप्रेशर, चुम्बक, शिवाम्बु, स्वर, नाभि, ध्यान जैसी अनेक अहिंसात्मक स्वावलम्बी मौलिक प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों को भले ही शरीर के प्रत्येक अंग अथवा अवयव की सूक्ष्म जानकारी न भी हो, फिर भी अधिकांश स्वावलम्बी अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियाँ सम्पूर्ण शरीर को एक इकाई मान एवं आत्मिक अनुभूतियों की उपेक्षा नहीं करती। रोग का कारण रोगी की अप्राकृतिक जीवन शैली में ही ढूँढ़ उपचार करती है। शरीर के विभिन्न अंगों का गहनतम शोध करना गलत नहीं, उसका बहुत महत्त्व है, उपयोगिता और आवश्यकता है, परन्तु उससे भी ज्यादा जरूरी, प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण मन एवं आत्मा की शक्तियों पर ध्यान देना परम आवश्यक है। तुरन्त राहत के नाम पर उसकी उपेक्षा कहाँ तक उचित है? स्वच्छ कपड़े पहनकर आभूषण पहनने से शरीर की शोभा काफी बढ़ जाती है। फटे-पुराने अथवा गन्दे कपड़ों पर आभूषण शोभा नहीं देते। बिना कपड़े आभूषण पहनने वालों को मूर्ख अथवा पागल कहते हैं। उपचार के नाम पर भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक न रख, आत्मा और मन को विकारी बनाने वाले स्वयं निर्णय करें कि उनकी प्राथमिकता कितनी सही है?
स्वावलम्बी उपचार कितना सरल
स्वयं द्वारा स्वयं का उपचार सहज, सरल, सस्ता, स्थायी, दुष्प्रभावों से रहित, पूर्णतः अहिंसक, शरीर की प्रतीकारात्मक क्षमता को बढ़ाने वाला, शरीर, मन एवं आत्मा के विकारों को दूर करने वाला, सर्वत्र, प्रायः सभी जगह सहज उपलब्ध होता है। जो व्यक्ति को स्वतंत्र, स्वावलम्बी, सजग बनाता है तथा स्वविवेक जागृत कर स्वयं की क्षमताओं के सदुपयोग की प्रेरणा देता है। जिस प्रकार हम साल के 365 दिनों में अपने घरों में बिजली के तकनीशियन को प्रायः 8 से 10 बार से अधिक नहीं बुलाते। 355 दिन जैसे स्विच चालू करने की कला जानने वाला बिजली के उपकरणों का उपयोग आसानी से कर सकता है। हमें यह जानने की आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का आविष्कार किसने, कब और कहाँ किया? बिजलीघर से बिजली कैसे आती है? कितना वोल्टेज, करेन्ट और फ्रिक्वेन्सी है? मात्र स्विच चालू करने की कला जानने वाला उपलब्ध बिजली का उपयोग कर सकता है। मोबाइल का उपयोग करने वालों को बातचीत करने हेतु मोबाइल के सभी पुर्जो की जानकारी आवश्यक नहीं होती। ठीक उसी प्रकार साधारण परिस्थितियों में स्वस्थ रहने हेतु जनसाधारण को शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी की आवश्यकता नहीं होती। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की ऐसी साधारण जानकारी से व्यक्ति न केवल स्वयं अपने आपको स्वस्थ रख सकता है, अपितु असाध्य से असाध्य रोगों का बिना किसी दुष्प्रभाव प्रभावशाली ढंग से उपचार भी कर सकता है।
स्वावलम्बी चिकित्सा अधिक तर्क संगत
स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ हिंसा पर नहीं अहिंसा पर, विषमता पर नहीं समता पर, साधनों पर नहीं साधना पर, दूसरों पर नहीं स्वयं पर, क्षणिक राहत पर नहीं अपितु अन्तिम प्रभावशाली स्थायी परिणामों पर आधारित होती हैं। रोग के लक्षणों की अपेक्षा रोग के मूल कारणों को नष्ट करती हैं जो शरीर के साथ-साथ मन एवं आत्मा के विकारों को दूर करने में सक्षम होती हैं। जो जितना महत्त्वपूर्ण होता है, उसको उसकी क्षमता के अनुरूप महत्त्व एवं प्राथमिकता देती हैं। यह प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित होने के कारण अधिक प्रभावशाली, वैज्ञानिक, मौलिक एवं निर्दोष होती हैं।
स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ क्यों प्रभावशाली?
स्वावलम्बी अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियाँ रोग के मूल कारणों को दूर करती है। शरीर, मन और आत्मा में तालमेल एवं सन्तुलन स्थापित करती है। जो जितना महत्त्वपूर्ण होता है, उसको उसकी क्षमता के अनुरूप महत्त्व एवं प्राथमिकता देती है। शारीरिक क्षमताओं और उसके अनुरूप आवश्यकताओं में सन्तुलन रखती है। स्वस्थ जीवन जीने के लिए जो अनावश्यक, अनुपयोगी प्रवृत्तियाँ है, उन पर नियन्त्रण रखने हेतु सचेत करती है। इस प्रकार आधि, व्याधि और उपाधि के सन्तुलन से समाधि, शान्ति और स्वस्थता प्रधान करती है, अतः अन्य दवा पर आधारित चिकित्सा पद्धतियों से अधिक प्रभावशाली होती है। आवश्यकता है जिस किसी चिकित्सा को अपनाया जाए, उपचार अथवा आचरण करते समय उसके मूल सिद्धान्तों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। स्वावलम्बी अहिंसक चिकित्सा पद्धतियों की भी यह प्रथम आवश्यकता है।
स्वावलम्बी अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियाँ: मौलिक है वैकल्पिक नहीं
आजकल हमारा स्वास्थ्य मंत्रालय आधुनिक चिकित्सा के अतिरिक्त अन्य सभी चिकित्सा पद्धतियों को वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में मानता है, उसमें कितनी सत्यता है? स्वास्थ्य के प्रति सजग, बुद्धिमान, सम्यक् चिन्तनशील प्रत्येक व्यक्ति के लिए चिंतन का प्रश्न है।
वैकल्पिक चिकित्सा कौनसी? स्वावलम्बी या परावलम्बी, सहज अथवा दुर्लभ, सरल अथवा कठिन, सस्ती अथवा महंगी। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित प्राकृतिक या नित्य बदलते मापदण्डों वाली अप्राकृतिक, अहिंसक अथवा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा, निर्दयता, क्रूरता को बढ़ावा देने वाली। दुष्प्रभावों से रहित अथवा दुष्प्रभावों वाली। शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता बढ़ाने वाली या कम करने वाली। रोग का स्थायी उपचार करने वाली अथवा राहत पहुंचाने वाली। सारे शरीर को एक इकाई मानकर उपचार करने वाली अथवा शरीर का टुकड़ों-टुकड़ों के सिद्धान्त पर उपचार करने वाली।
उपर्युक्त मापदण्डों के आधार पर हम स्वयं निर्णय करें कि कौनसी चिकित्सा पद्धति मौलिक है और कौनसी वैकल्पिक? मौलिकता का मापदण्ड भ्रामक विज्ञापन अथवा संख्याबल नहीं होता। करोड़ों व्यक्तियों के कहने से दो और दो पांच नहीं हो जाते। दो और दो तो चार ही होते हैं। अतः स्वास्थ्य मंत्रालय को स्वीकार करना चाहिए कि उपरोक्त मानदण्डों वाली स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ भी मौलिक चिकित्सा पद्धतियाँ हैं, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ नहीं हैं।

— डॉ. चंचलमल चोरडिया

डॉ. चंचलमल चोरडिया

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