धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

शरद पूर्णिमा की रात में होती है – अमृत की बरसात

शरद पूर्णिमा आश्विन शुक्ल की पूर्णिमा को ही मनाया जाता है।इस दिन चन्द्रमा का स्वरूप बहुत ही अद्भुत और सौंदर्य से युक्त सोलह कलाओं से दैदीप्यमान होता है।चन्द्रमा की दूधिया आभा पूरी प्रकृति जल-थल-नभ को प्रकाशवान कर देती है।सारा कण-कण और जड़,चैतन्य सा जान पड़ता है।धरती में एक नई ऊर्जा,चेतना,उत्साह,उमंग,और उल्लास छा जाता है।पूरी धरती जीवंत हो जाती है।ऐसे पावन अवसर पर शीतल-मंद-सुगन्ध हवाएं बहने लगती है।मौसम पूरी तरह से मनोरम हो जाता है, न बारिश,न गर्मी और न ही ठंड।प्रकृति का एक अद्भुत रूप उपस्थित हो जाता है।क्षिति,जल,गगन,समीर,तरु पुष्प,सभी मे शरद पूर्णिमा का प्रभाव स्पस्ट दिखाई देने लगता है।वन, उपवन,बाग बगीचे खेत खलिहानो में हरी-भरी हरियाली सुंदर रंग-बिरंगे फूल कलियां, धरती की सुंदरता में चार-चांद लगा देते हैं।ताल-तलैया पोखर- सरोवर,नदिया का जल,सुस्वादु और स्वच्छ हो जाता है।ऐसे समय मे जल-थल-नभ की जीव जंतुएँ स्वच्छ जल में विचरण और अठखेलियाँ करते हुए दिखाई देने लगते हैं।
ऐसे पावन अवसर पर शरद पूर्णिमा का अवतरण होता है।यह अवसर है चन्द्रमा का परिवर्तनशील होकर अपने पूर्ण स्वरूप के साथ सोलह कलाओं से युक्त आश्विन पूर्णिमा की निशा में अवतीर्ण होना है।ऐसे पूर्णिमा की रात में यह चन्द्रमा अपनी सोलह कलाएं यथा आमृत,मंदा,पुष्प,तुष्टि,पुष्टि,धृति,शाशनी, चंद्रिका,कान्ति,ज्योत्सना,श्री,प्रीति,अंगदा,पूर्ण,
पुरनामृत,ऊर्जा उमंग उत्साह के आभा को पूरे जल- थल-नभ सारी सृष्टि में प्रकाशित और प्रवाहित करता है। और इसे ही अमृत वर्षा कहा जाता है।
वैसे इस सम्बंध में एक कथा भी आती है कि-इसी शरद पूर्णिमा में समुद्र मंथन हुआ था जिसमे चन्द्रमा,दुर्गा,लक्ष्मी,धन्वन्तरि,अमृत,विष,का प्रादुर्भाव हुआ था।इसी दिन भगवान विष्णु और लक्ष्मी माता का विवाह भी हुआ।और इसी शरद पूर्णिमा में योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने राधे सहित गोपियों सँग महारास की लीला रचाई थी।ऐसी मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की रात में चन्द्रमा की किरणों में ओस के साथ अमृत की बरसात होती है।इसी कारण इस रात में
जन–मानस खीर बनाकर घर के छत में टांगते है, और फिर उसे धन्वन्तरि का प्रसाद स्वरू ग्रहण करते हैं।और इस प्रसाद से शारीरिक व्याधियां दूर होती है।तथा आरोग्य की प्राप्ति होती है।
दूसरी मान्यता यह भी है कि मनुष्य का जीवन भी चन्द्रमा की सोलह कलाओं के समान परिवर्तन शील होती है।मनुष्य के मन को भी चन्द्रमा के समान माना गया है जो हमेशा घटती-बढ़ती रहती है।और अंत मे जब वह देह का त्याग करता है तो वही प्रकाश में विलीन हो जाता है जिसे मोक्ष् की प्राप्ति कहा गया है।
इस प्रकार से यह कहा जा सकता हैं की यह शरद पूर्णिमा उल्लास,उमंग,और जीवंतता का प्रतीक है जो हमारे जीवन मे एक नई चेतना और ऊर्जा का संचार करता है।

— अशोक पटेल “आशु”

*अशोक पटेल 'आशु'

व्याख्याता-हिंदी मेघा धमतरी (छ ग) M-9827874578