संस्मरण

मेरी कहानी 87

बदामी रंग का पयजामा सूट जो मैंने मार्क्स ऐंड स्पैंसर से लिया था पहन कर मैं बिस्तर में लेट गिया था । रेडिओ लगा हुआ था।, यह वोह ही रेडिओ था जो कभी मैं और मेरे पिता जी फगवाड़े से तब लाये थे जब गाँव में नई नई बिजली आई थी और अभी भी बहुत अच्छा चल रहा था। सफर की थकान थी और पता ही नहीं चला कब नींद आ गई। जब सुबह उठा तो कुछ कुछ ठंडक थी और मैंने घर से एक खादी की चादर ओड़ ली जिस को पंजाब में खेसी कहते थे (अब पता नहीं ,यह खेसीआं हैं या नहीं क्योंकि तब ज़्यादा तर लड़कियां ही बनाया करती थीं और अब तो सभी स्कूल कालज जाती हैं ) और बाहर खेतों की तरफ जाने लगा। रास्ते में लोग मिल रहे थे और उन से मैं हाथ मिला रहा था और बातें करके आगे चला जा रहा था। लगता था जैसे कल ही मैं गाँव से गिया था।

मेरी तरफ देख कर कुछ लोग हैरान हो रहे थे कि मेरे तो दाढ़ी होती थी और अब मैं क्लीन शेव था लेकिन सभी जानते थे कि जितने भी इंगलैंड को जाते थे क्लीन शेव हो कर ही वापस आते थे। पयजामा सूट पहन कर मैं रात को सोया था और बाहर भी मैं पैजामा सूट में ही गिया था। इंग्लैण्ड में तो पयजामा सूट पहन कर घर से बाहर निकल ही नहीं सकते थे क्योंकि यह सिर्फ सोने के वक्त ही पहना जाता था। कितनी आज़ादी महसूस कर रहा था मैं ,ऐसे लगता था जैसे मैं जेल से बाहर आया हूँ।

लोगों से बातें करता करता मैं दूर खेतों में आ गिया ,यह वोही मेरे दोस्त बहादर के खेत थे जिन में अब गेंहूँ लैह लहा रही थी और कुछ ही हफ़्तों में कटाई के मुकाम पर पहुँचने वाली थी। कहीं कहीं सेंजी और चौटाले के भी खेत थे जिन का हरा हरा चारा पशुओं को दिया जाता है। मुझे याद आ गिया जब स्कूल के दिनों में मैं इन्हीं चौटाले और सेंजी के खेतों में से मेथे तोड़ कर घर ले आता था और माँ मक्की के आटे में मेथे , नमक ,मिर्च और मसाला डाल कर चूल्हे पर मक्की की रोटीआं पकाया करती थी और मैं दही और माखन के साथ खाया करता था। इंगलैंड में तो टॉयलेट रूम के कमोड पर ही बैठना पड़ता था लेकिन आज खुल्ले खेतों में बैठना अच्छा लगा।

गाँव में कोई ख़ास बदलाव नहीं था। खेतों से जब मैं वापस आ रहा था तो पीपल अब भी वही थे और नज़दीक ही कुछ लोग बैठे थे और स्वर्ण सिंह नम्बरदार का अफ़सोस कर रहे थे और उस का लड़का सोहन सिंह वहां ही बैठा था। नम्बरदार स्वर्ण सिंह की इंगलैंड में ही मृत्यु हो गई थी। नंबरदार स्वर्ण सिंह वोही नेक इंसान था जो मेरे पासपोर्ट बनाते समय मेरे साथ फगवाड़े की कचहरी में गिया था और तसीलदार के सामने मेरी गवाही दी थी और एक नम्बरदारी अंगूठी से स्टैंप लगाईं थी। इस की वाइफ बंतो की मेरी माँ ने बहुत मदद की थी और इस की दो लड़किआं सीसो और जीतो मेरी बहन के साथ हमारे घर में चक्की से आटा पीसा करती थीं ,तब मैं छोटा होता था। तब यह बहुत गरीब होते थे लेकिन आज तो स्वर्ण सिंह के पोते पैसे में खेल रहे हैं।

उन लोगों में मैं भी बैठ गिया और सोहन सिंह से अफ़सोस जाहर किया। स्वर्ण सिंह हमारे टाऊन में ही अपनी लड़की सीसो के साथ रहता था। बहुत पहले मैं लिख चुक्का हूँ कि सीसो की शादी अनूप सिंह के साथ हो गई थी जो सिंघा पुर से आया हुआ था और अनूप सिंह कुछ देर बाद इंग्लैण्ड आ गिया था और मिडलैंड रैड बस कंपनी में बस कंडक्टर लग गिया था। अनूप सिंह ,सीसो के साथ हमारे ही टाऊन में बर्मिंघम रोड पर रहता था। उस वक्त तक सीसो और अनूप सिंह के दो बच्चे ,एक लड़का और एक लड़की थे। उस वक्त एक नया क़ानून बना था ,जिस के तहत कोई लड़की अपने माता पिता को इंडिया से अपने साथ रहने के लिए बुला सकती थी। इस कानून के तहत ही सीसो ने स्वर्ण सिंह को बुला लिया था।

कभी कभी मैं उन को मिलने के लिए जाय करता था। स्वर्ण सिंह किसी फैक्ट्री में काम पर भी लग गिया था। इन का घर बिलकुल बर्मिंघम रोड के साथ ही था। यह रोड हमारे टाऊन से बर्मिंघम तक जाती है ,तकरीबन पंद्रा मील लम्बी यह रोड है और ड्यूअल कैरेज वे है ,एक तरफ गाड़ीआं जाती हैं और दुसरी तरफ से आती हैं। लोग अक्सर इस सड़क पर गाड़ीआं तेज चलाते हैं। एक दिन स्वर्ण सिंह यह रोड क्रॉस कर रहा था कि एक तेज गाडी ने उस को इतनी ज़ोर से दूर तक फेंका कि स्वर्ण सिंह बेहोश हो गिया। बहुत सी हड्डीआं टूट गई थीं। पता लगने पर मैं भी हस्पताल गिया था और उस के बहुत सी पट्टिआं की हुई थीं।

जब वोह कुछ ठीक हो कर घर आया तो उस को मिलने के लिए मैं सीसो के घर गिया था। उस दिन बर्फ बहुत पड़ी हुई थी और बहुत ठंड थी। जब मैं ऊपर गिया तो छोटे से कमरे में स्वर्ण सिंह कंबल ओढ़े चारपाई पर बैठा था। मैं भी चारपाई पर ही बैठ गिया और उस से बातें करने लगा। कुछ देर बाद स्वर्ण सिंह दुःख भरी आवाज़ में बोला ,” गुरमेल! इस वलाएत ने मुझे बहुत दुःख दिया है ,इस से तो मैं गाँव के खुले खेतों में ही अच्छा था “. मैं बोला ,” नंबरदारा ! घबराता क्यों हैं ,तू जल्दी ठीक हो जाएगा ” . यह मेरी आखरी मुलाकात थी। काफी देर बीमार रहने के बाद वोह यह संसार छोड़ गिया था।

कुछ देर लोगों से बातें करने के बाद मैं घर आ गिया। घर आ कर गुसलखाने में स्नान किया। तब तक रोटी तयार हो चुक्की थी और मैं चूल्हे के नज़दीक ही बैठ गिया। चूल्हे में जल रही लकड़ीओं से मज़ा आ रहा था। पिछले दिन के बने हुए साग को माँ ने दुबारा तड़का लगाया हुआ था जिस से लसुन की भीनी भीनी खुशबू आ रही थी। माँ ने कांसी की थाली में साग और उस के ऊपर घर की गाये का ताज़ा माखन ,दो मक्की की रोटीआं ,एक कौली में दही और साथ ही एक ग्लास लस्सी का रख दिया । वर्षों बाद ऐसी रोटी खाने को मिली थी और मैं मज़े से खाने लगा। इस रोटी के आगे इंगलैंड के सभी खाने फेल थे। जी भर कर खाना खाया और गुसलखाने में जा कर हाथ धोये और फिर अपने चुबारे में आ कर कपडे बदलने लगा।

मैंने अपनी बेस्ट पैंट (ट्राऊज़र्स) और शर्ट पहनी। यह कपडे मैंने डिज़ाइनर शॉप से लिए थे जो कुछ एक्सपैंसिव थे और यह कपडे बाद में भी मैंने बहुत रूह से पहने थे। नैकटाई और जैकेट पहनी और गले में डिज़ाइनर मफ़लर डाला और शू पहन कर बाहर आ गिया। माँ को पता था कि मैंने अपनी बीवी कुलवंत को मिलने जाना था। शायद नौ दस वजे होंगे और किस टाइम पर मिलने का वादा था याद नहीं। मैं नीचे आ गिया ,बाइसिकल उठाया और घर से बाहर आ गिया। लोगों से हाथ मिलाता हुआ मैं गियान चंद की दूकान की तरफ चल पड़ा।

जब मैं उस की दूकान पर पौहुँचा तो गियान चंद उस वक्त झाड़ू से दूकान की सफाई कर रहा था। मैंने उसे सत सिरी अकाल बोला ,उस ने अपना मुंह ऊपर उठाया और हैरानी से मेरी तरफ देखने लगा। पहचान कर हाथ मिलाया और गले लग गिया। मुझे मालूम था कि मैं उस को बदला हुआ लगता था। उस ने मुझे पगड़ी के बारे में कुछ नहीं पुछा और पिछली बातों को याद करके हम हँसते रहे। फिर गियान चंद खिल खिला कर मास्टर हरबंस सिंह की बात करने लगा ,वोही पुरानी बात ,” ए गियान चंद! बनत कौन सी फिल्म है ! “. कुछ देर बाद मैंने गियान चंद से रात को मिलने का वादा करके विदा ली और गाँव से बाहर आ गिया।

मैं पगडंडी पर साइकल चलाता हुआ माधो पुर की तरफ जाने लगा। आगे छोटी सी नदी जिस को कैल बोलते थे (इसी कैल का दूसरा हिस्सा दो मील दूर दूसरी तरफ था जिधर सड़क बनाई गई थी और हमारे गाँव में भारत समाज सेवक कैम्प लगा था ),उस पर बने पुल के नज़दीक पहुँच गिया और खड़ा हो कर इर्द गिर्द देखने लगा। इस पुल के साथ मेरी बहुत यादें जुड़ी थीं। एक दफा सरकार की तरफ से इस नदी को खुला चौड़ा करने के ऑर्डर आये थे ,सारा गाँव अपने अपने फावड़े और टोकरिआँ ले कर यहां काम कर रहा था। इस में मैं और दादा जी भी थे। मट्टी खोदते खोदते अचानक दो सांप नीचे से निकल आये थे ,शोर सा मच गिया था लेकिन वोह कहीं भाग गए थे।

इस नदी पे पहले कोई पुल नहीं होता था। बरसात के दिनों में इस को पार करने के लिए दो आदमी लोगों की मदद किया करते थे। पानी में बहुत बड़ा कड़ाहा जिस में गुड़ बनाया जाता है, डाल देते थे. इस में लोगों को बिठा कर यह दो आदमी पार करा देते थे और बदले में लोग उन को कुछ सिक्के दे देते थे। फिर वोह भी दिन आये जब इस पर पुल बनना शुरू हो गिया था और हम देखने जाय करते थे। माधो पुर मैं पहुँच गिया था ,वोही गलिआं थीं जिन में से हो कर हम बरसात के दिनों में फगवाड़े जाय करते थे । माधो पुर को पार करके मैं चहेड़ू रेलवे स्टेशन के पास पहुँच गिया। यही वोह स्टेशन था जिस से ट्रेन पकड़ कर हम दुसैहरा देखने जालंधर जाय करते थे।

अब मैं जीटी रोड पर आ गिया था और मेरी मंज़िल नज़दीक आ रही थी। इस जीटी रोड की पता नहीं कितनी यादें ज़हन में आ रही थीं. जब हम बिदेश में चले जातें हैं तो हमारा दिल अपनी जनम भूमि को कभी छोड़ता नहीं है ,लाख हम अपने काम में वयसत रहें लेकिन दिल अपने देश में ही रहता है ,यह मैं नहीं सब के साथ ऐसा ही होता है। बीस मिनट में ही मैं धैनोवाली बस अड्डे पर आ गिया। वहां साइकल रिपेअर की दूकान के नज़दीक मैं आ गिया ,जैसा कि मैं और कुलवंत ने वादा किया हुआ था।

ज़्यादा देर मुझे इंतज़ार नहीं करना पड़ा। एक लड़की को मैंने रेलवे के फाटक को पार करते हुए देखा जिस के बाइसिकल की पिछली सीट पर पांच शै साल की लड़की बैठी थी ,किया यही होगी कुलवंत ? मैं सोचने लगा। कुलवंत की जो फोटो मेरे पास थी ,वोह स्मार्ट कपड़ों में थी लेकिन यह तो बिलकुल साधाहरण कपडे थे। एक मिनट में ही वोह साइकल वाले की दूकान के नज़दीक आ गई। मैंने आगे बड़ कर कुलवंत को सत सिरी अकाल बोला, जिस का जवाब उस ने बहुत धीरे से दिया और मुझे भी यकींन हो गिया कि यही कुलवंत थी, लेकिन कितनी शर्मीली जैसे मुंह में जुबां ही ना हो। अपने अपने साइकल पकडे हुए हम धीरे धीरे जीटी रोड के साथ साथ चलने लगे। वोह कुछ बोल नहीं रही थी और मैं रिवाजन सभी घर के सदस्यों का हाल चाल पूछ रहा था।

फिर मैंने कहा ,” चलो हम जालंधर छावनी रेलवे स्टेशन पर चलते हैं ,वहां साइकल स्टैंड पर साइकल खड़े करके ट्रेन में बैठ कर जालंधर चलते है “. कुछ ही देर में हम छावनी रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए ,साइकल हम ने खड़े किये ,ट्रेन पकड़ी और जालंधर शहर पहुँच गए। मैं बातें कर रहा था लेकिन कुलवंत कम बोलती थी और मैं कुलवंत की छोटी बहन शमी के साथ बातें करने लगता जो खूब खुश थी। एक अच्छी सी हलवाई की दूकान देख कर हम उस में चले गए और एक प्राइवेट कैबिन में बैठ गए। छोटा सा एक लड़का आर्डर लेने आया और मैंने जो आर्डर दिया याद नहीं लेकिन रसगुल्ले जरूर याद हैं। हम खाने लगे और चाय पीने लगे। अब कुलवंत की झिजक कुछ कुछ दूर हो रही थी ,हम चिठीओं की बातें करने लगे लेकिन वोह सिर्फ मुस्करा देती। बहुत बातें तो याद नहीं लेकिन हम जल्दी ही दुकान से बाहर आ गए।

हम फिर घूमने लगे और हमारी नज़दीकीआं काफी हद तक आगे बड़ गई थीं। मैंने कुलवंत को कड़े के बारे में बताया जो मुझे मेरे ही अटैचीकेस में मिला था ,रब ने छपर फाड़ कर ही अटैचीकेस में फैंक दिया था। आगे की प्लैनिंग के बारे में हम बातें करने लगे कि हम अपनी शादी के लिए गहने और कपडे खुद ही खरीदेंगे। कुलवंत ने मुझे अपनी माँ का सन्देश भी सुना दिया कि किसी दिन मैं उन के घर आऊं। एक हफ्ते तक आने का वादा मैंने कर दिया और मुझे खाना कुलवंत के घर ही खाना था। अब बातों में अपनापन महसूस होने लगा था। घुमते घुमते तीन चार वज गए थे और कुलवंत जाने के लिए कहने लगी। इस लिए हम रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए , छावनी के टकट लिए और ट्रेन में बैठ कर कुछ ही मिनटों में छावनी पहुँच गए। अपने बाइसिकल लिए और छावनी शहर के बाजार में फ्रूट लेने के लिए चल पड़े।

कुलवंत को छावनी की एक एक दूकान का पता था क्योंकि वोह यहां के स्कूल में पड़ा करती थी। एक फ्रूट की दूकान से मैंने अच्छे अच्छे फ्रूट की एक बास्केट बनवा ली और कुलवंत के बाइसिकल के पीछे बाँध दी और हम वापस जीटी रोड पर धैनोवाली रेलवे फाटक की ओर चल पड़े। कुछ ही मिनटों में हम धैनोवाली बस स्टैंड पर पहुँच गए। अब कुलवंत कुछ मुस्कराई और कहने लगी ,” पता है जब सुबह मैं बोलती नहीं थी तो किया हुआ था ?”. नहीं ,मैंने कहा। कुलवंत बोली ,” इधर आप आ गए थे और उधर मेरे एक नज़दीकी दादा जी पंप से साइकल के टायर में हवा भर रहे थे ,न तो मैं आप को बता सकती थी ,ना बोल सकती थी ,यह दादा जी किया सोचेंगे कि मैं किस से मिल रही हूँ ,यह तो अच्छा ही हुआ कि वोह जल्दी चले गए नहीं तो यह हमारे घर चले जाते क्योंकि यह बहुत सख्त सुभाव के हैं “. मैं हंस पड़ा और कुलवंत को अलविदा करके जीटी पर साइकल दौड़ाने लगा।

सोच रहा था कि यूँ तो हम की सगाई हो चुक्की थी लेकिन इस पहली मुलाकात में कितना आनंद था। जवानी में छुप छुप कर जब प्रेमी मिलते हैं, ऐसा ही तो अनुभव होता है ! 48 वर्ष पहले का यह दिन हमारे लिए कितना भागयशाली था।

चलता . . . . . . . .

3 thoughts on “मेरी कहानी 87

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की क़िस्त अच्छी लगी। आपने आदरणीय बहिन जी श्रीमति कुलवंत जी की पहली मुलाकात का जो वर्णन किया है वह ऐसा सजीव वा प्राणवान है जैसे कि हम उस समय वहां मौजूद हों और आपको अपनी आँखों से देख रहें हों। परमात्मा ने युवावस्था में आगे होने वाले पति पत्नी के बीच पवित्र प्रेम का ऐसा सुख बनाया है जिसको महसूस ही किया जा सकता शब्दों में कहा नहीं जा सकता। आपने लन्दन में स्वर्ण सिंह जी की चारपाई पर बैठने की बात की है। क्या वहां भी भारत जैसी चारपाई होती थी? आज की सुखदायक आत्मकथा के लिए हार्दिक धन्यवाद।

    • धन्यवाद मनमोहन भाई . यहाँ चार्पाइआन नहीं होतीं .बैड ही होती हैं जो कई साइज़ की होती हैं ,मैंने सिर्फ आसानी के लिए ही लिख दिया .

      • Man Mohan Kumar Arya

        हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

Comments are closed.