लघुकथा

बलि

कोई रात ऐसी नहीं गुजरती थी, जिस रात उसे स्याह अनुभव ना होता हो। स्याह अनुभव शायद होता नहीं भी हो। क्योंकि विक्षिप्तावस्था में कैसी होती होगी अनुभूति।

‘एक कट्ठा जमीन मेरे नाम से कर दीजियेगा तो मैं आपकी बेटी को अपने साथ रखने के तैयार हूँ; वरना मैं चला, आप अपनी बेटी को अपने पास रखिये।’

उसके पति की कही बातों पर नीरा के पिता कोई जबाब देते, उसके पहले उसकी भाभी चिल्ला पड़ी – ‘शादी के इतने सालों के बाद धमकी देने से हम डरने वाले नहीं हैं। आपको नीरा को ले भी जाना होगा और हम जमीन देने वाले भी नहीं, आप ही एक दामाद नहीं हैं घर में। अभी एक और मेरी ननद की शादी करनी बाकी है। कल मेरी भी बेटी सयानी होगी। जमीन नहीं दी जायेगी तो नहीं दी जायेगी।’

जमीन नहीं दिए जाने के कारण मायके में ही रहना पड़ा नीरा को। जब तक नीरा के माँ बाप जिन्दा रहे, नीरा का पेट भरता रहा। माँ बाप की मृत्यु के बाद उसे उसी शहर के मन्दिर में आश्रय लेना पड़ा। समृद्ध घर के मालिक के पास सैकड़ो एकड़ जमीन थी।

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

5 thoughts on “बलि

  • राजकुमार कांदु

    ससुराल और मायके के बीच दहेज़ और अहम् की लड़ाई में पिसती बेटियों की व्यथा को जबान देने के लिए धन्यवाद । एक अनुपम रचना ।

  • विजय कुमार सिंघल

    मार्मिक लघुकथा !

  • विजय कुमार सिंघल

    मार्मिक लघुकथा !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    धिक्कार है ऐसे लोगों पर !

  • लीला तिवानी

    प्रिय सखी विभा जी, ज़र-ज़मीन का मोह जो न करवाए, सो थोड़ा. अति सुंदर यथार्थ. एक सटीक व सार्थक रचना के लिए शुक्रिया.

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