कविता

व्यंग्य कविता – लगती है हरे गुलाबी की चायपानी

शासकीय काम घर बैठे करवाना हो तो
कागज पत्तर घर पर बुलाना हो तो
छुट्टी के दिन भी सील ठप्पे लगवाना हो तो
लगती है हरे गुलाबी की चायपानी
अपने ऑफिस में शासकीय कागज मंगवाना होतो
अंदर का शासनचूना काम करवाना हो तो
उल्टा पुल्टा काम जल्द करवाना हो तो
लगती है हरे गुलाबी की चायपानी
ऑफिस चकरों के झमेले में नहीं पड़ना हो तो
भारी भरकम समय बचाना हो तो
तारीख़ निकलने के बाद भी काम करवाना हो तो
लगती है हरे गुलाबी की चायपानी
टेबल पर नहीं बाजू के प्राइवेट फंटर से
बातचीत करनी पड़ती है भावनानी
रेट की पोटली धीरे से खुलवाना भावनानी
लगती है हरे गुलाबी की चायपानी
हर ऑफिस में बाबू के पास मिलेगा प्राइवेट फंटर
चायपानी इंनकारे तो चलेगा चकरे हंटर भावनानी
परेशानी मतलो खाओगे चकरे भावनानी
लगती है हरे गुलाबी की चायपानी
— किशन सनमुख़दास भावनानी

*किशन भावनानी

कर विशेषज्ञ एड., गोंदिया