दोहागीत “जनता है मजबूर”
दोहागीत “जनता है मजबूर”
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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खुद को वाद-विवाद से, रखना हरदम दूर।
मरे हुए को मारना, दुनिया का दस्तूर।।
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आडम्बर को देखकर, ईश हुआ हैरान।
आज आदमी हो गया, धरती का भगवान।।
छल-फरेब मन में भरा, होठों पर हरिनाम।
काम-काम को छल रहा, अब तो आठों याम।।
ठोंगी साधू-सन्त तो, मद में रहते चूर।
मरे हुए को मारना, दुनिया का दस्तूर।१।
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गेँहूँ-चावल-दाल से, भरे हुए गोदाम।
अकस्मात कैसे बढ़े, खान-पान के दाम।।
पहले जैसे हैं कहाँ, हरे-भरे मैदान।
घटते ही अब जा रहे, खेत और खलिहान।
आपे से बाहर हुई, अरहर-मूँग-मसूर।
मरे हुए को मारना, दुनिया का दस्तूर।२।
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प्रजातन्त्र में बढ़ गया, कितना भ्रष्टाचार।
जालसाजियों को रही, बचा आज सरकार।।
नकली लिए उपाधियाँ, शासक करते राज।
घोटालों में लिप्त हैं, बड़े-बड़े अधिराज।
जनता के ही राज में जनता है मजबूर।
मरे हुए को मारना, दुनिया का दस्तूर।३।
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सत्ता पाने के लिए, होते पूजा जाप।
मतलब में सब कह रहे, आज गधे को बाप।।
दाता थे जो अन्न के, आज हुए कंगाल।
लालाओं ने भर लिया, गोदामों में माल।
मजदूरी मिलती नहीं, पढ़े-लिखे मजदूर।
मरे हुए को मारना, दुनिया का दस्तूर।४।
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पुख़्ता करने में लगे, नेतागण बुनियाद।
निर्धन श्रमिक-किसान की, कौन सुने फरियाद।।
कहने को आजाद है, लोकतन्त्र में लोग।
सबकी किस्मत में नहीं, लड्डू-माखनभोग।।
अपनी कलम-कृपाण से, लिखता हूँ भरपूर।।
मरे हुए को मारना, दुनिया का दस्तूर।५।
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