सामाजिक

घरेलू औरतें आख़िर करती क्या हैं

क्यूँ कुछ लोगों की नज़रों में गृहिणी की कोई कीमत नहीं होती, क्यूँ ऐसा लगता है कि औरतें घर पर रहकर आख़िर करती ही क्या है? सुबह से शाम तक एक गृहिणी की दिनचर्या का विश्लेषण कीजिए कभी तब पता चलेगा कि गृहिणी के कँधों पर ही परिवार की नींव टिकी होती है। हर चीज़ का पर्याय उपलब्ध है, शायद एक गृहिणी का नहीं। बिन घरनी घर भूत का ड़ेरा।

“न गृहं गृह मित्याहु गृहिणी गृह मुच्यते” मतलब सिर्फ़ चार दीवारों से बनी इमारत घर नहीं कहलाता, गृहिणी से ही घर बनता है। कल्पना कीजिए चार दिन बगैर गृहिणी वाले घर की, सब तितर-बितर नज़र आएगा। घर की हर चीज़ को बखूबी सहज कर रखने वाली गृहलक्ष्मी से ही घर की शोभा है। गृहिणी की याददाश्त बेजोड़ होती है। सालों पहले रखी चीज़ आँख बंद करके अंधेरे में भी हाथ डालते ही ढूँढ निकालती है। तभी तो घर का हर एक सदस्य घर की प्रमुख महिला पर निर्भर होता है।

सुबह होते ही बड़े बुज़ुर्गों से लेकर बच्चे तक बहू, अरे सुनती हो, मम्मी, भाभी की आवाज़ लगाते रहेंगे। दो हाथ और दो पैर वाली वामा हर मोर्चे पर हाज़िर होकर अपने हुनर को परवाज़ देते सबकी मांग पर चीज़ें परोसते दिनरथ पर सवार होते खुद को खर्च करती रहती है नि:स्वार्थ और नि:शुल्क। 

एक पैर रसोई में तो दूसरा आँगन में होता है। दो हाथों से एक साथ असंख्य काम निपटाते अपने हर आयुध का बखूबी उपयोग करती है। वाणी, सुजबुझ, कुनेह और मानसिक संतुलन हर नारी के आयुध है। बड़ों की परवाह करते, पति को प्यार देते और बच्चों को ममता के शामियाने तले रक्षती स्त्री घर का आधार स्तम्भ है। 

घर में चार दिन गृहिणी की गैरमौजूदगी घर का नक्शा बदल देती है। स्त्री अगर नौकरी करती है तब भी घर और ऑफिस के बीच सामंजस्य बिठाते हर काम को बराबर न्याय देती है। घर की देखभाल, बच्चों को पढ़ाना, मार्केट से जीवन जरूरत की चीज़े लाना, बुज़ुर्गो की देखभाल करना, खाना बनाना, नौकरी देखना। अकेले कँधे पर इन सारे कामों का बोझ ढ़ोते ज़िंदगी की क्षितिज पर चलती रहती है। बहुत कम घरों में मर्द घर काम में पत्नी का हाथ बंटाते पाए जाते है। ज़्यादातर पानी भी खुद अपने हाथ से लेकर नहीं पीते।

हमारे समाज की मानसिकता है कि जो काम आर्थिक रूप से ताल्लुक नहीं रखता उसे ‘काम’ की श्रेणी में नहीं रखा जाता, फ़र्ज़ समझा जाता है। हम अपने घरों में आने वाली कामवाली बाई के काम का मूल्यांकन करते है, लेकिन वही काम घर की महिलाएँ करती है तो उसे उसका कर्तव्य मानते है, और उसे कोई तवज्जो नहीं देते है। गृहिणी को घर का गूगल ही समझो उसको घर की हर छोटी बड़ी बात से लेकर सबकी पसंद-नापसंद और सबके दिल का हाल तक पता होता है। 

औरत के बिना घर, घर ही कहाँ रह जाता है। बस, ईंट-पत्थर का मकान मात्र रह जाता है। किसी भी घर में स्त्री का वही स्थान है जो एक जीवित प्राणी के शरीर में श्वास का है। पुरुष मकान बनाता है, लेकिन उसे घर बसाकर एक सभ्य सुसंस्कृत जीवन जीना औरत ही सिखाती है। आदमी कमाता है पर धन की कदर करना और आड़े वक्त के लिए संसाधन जुटाकर बचाकर रखना स्त्री का काम है। कहां तक गिनाएं साहब, औरत के बिना जीवन अकल्पनीय है। नहीं मानें, तो जरा दो घड़ी किसी विधुर सज्जन के पास बैठकर देखिए ऐसा लगेगा जैसे किसी उजड़ वीरान उपवन में आ गये हो। इसलिए गृहिणियों के कार्यों को गरिमा दीजिए, सम्मानित कीजिए क्योंकि मर्द घर और बाहर के बीच संतुलन साध पाते है तो ये गृहिणी के बहुमूल्य योगदान की वजह से संभव है। गृहिणी बिना कोई अपेक्षा के परिवार पर खुशी-खुशी अपनी उम्र वार देती है। हर परिवार गृहलक्ष्मी के बिना अधूरा है। इसलिए यह मानसिकता अब बदलनी चाहिए कि घरेलू औरत आख़िर करती क्या है।

— भावना ठाकर ‘भावु’ 

*भावना ठाकर

बेंगलोर