धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सम्यग्ज्ञान : एक अलौकिक दर्पण

ज्ञान एक दर्पण है, जिसमें आत्मा, अनात्मा, जड़ और चेतन सभी कुछ प्रतिबिम्बित हो सकता है। आप और हम दर्पण में अपना मुँह देखते हैं। यदि कहीं कोई दाग हो तो गीले कपड़े अथवा तौलिये से उसे पौंछ लेते हैं। ठीक उसी प्रकार महापुरुषों का जीवन चरित्र भी एक दर्पण है। उनके जीवन की ओर देखने मात्र से ही हमें अपने जीवन के विकार, कलंक, दोष साफ-साफ दिखाई देने लगेंगे। उस समय हमारा यह कर्त्तव्य हो जाता है कि हम ज्ञान रूपी तौलिये को भावना के जल में भिगोकर उससे अपने जीवन के दुर्गुण रूपी दाग को मिटा दें। ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता न किसी बाह्य पदार्थों से मिलता है, वह तो अपनी स्वयं की आत्मा में है। आत्मा का निज स्वरूप ही ज्ञान है। आवश्यकता है उस पर आये आवरण को हमें दूर करने की। राग और द्वेष के मिश्रण से ही ज्ञान मलिन और अपवित्र बनता है। हम संसार में रहें तो कोई आपत्ति नहीं पर संसार हमारे में न रहे। शरीर स्वस्थ रहे लेकिन शरीर की ममता न रहे।
जैसे एक दीपक की लौ से हजारों दीपकों को जलाया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार एक महामानव का चारित्र हजारों महामानव पैदा कर सकता है। आज जरूरत है दीपक को दीपक का संयोग कराने की। भोजन का मात्र नाम जपने से नहीं, उसे खाने से ही पेट भरेगा। ठीक उसी प्रकार महापुरुषों के स्मरण मात्र से ही नहीं, बल्कि उनके जीवन का अनुसरण करने से ही हमारी आत्मा का कल्याण होगा। सद् आचरण से ही हमारा कल्याण होगा।
झाडू (बुहारी) तो हाथ में ले ली, लेकिन जब रोशनी ही नहीं होगी तो अंधेरे में कचरा कैसे निकालेगें। ज्ञान प्रकाश है तो क्रिया बुहारी। ज्ञान का दीपक जब प्रज्ज्वलित हो जाता है, तब आत्मा अपने विकारों की ओर, अपने विभाव दशा की ओर दृष्टिपात करती है। यदि इन दोषों को हम देख लेते है तो क्रिया रूपी बुहारी से विकार रूपी कचरे को बाहर निकाल फैंकना है। किसी क्रिया के पहले सम्यग्ज्ञान का होना आवश्यक है। ज्ञान के साथ क्रिया तो स्वयं आ जाती है।
साधारणतया ज्ञान एक तीखी तलवार के समान है। तलवार से जैसे आत्मरक्षण भी किया जा सकता है और आत्मघात भी। ज्ञानी पुरुष उससे आत्मरक्षा करता है तो वहीं अज्ञानी आत्मवध कर लेता है। ठीक उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान से हम अपने आत्मगुणों का विकास कर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकते है और मिथ्या (झूठे) ज्ञान से अनन्त-अनन्त संसार को बढ़ाकर चौरासी लाख जीवायोनी में भ्रमण भी कर सकते है। अर्थात् ज्ञान से आत्म रक्षण कर सकते है व ज्ञान से ही आत्मघात भी कर सकते है।
ज्ञान आत्मा की निर्मल ज्योति है। सूर्य एवं चन्द्र का प्रकाश तो सीमित क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है किन्तु ज्ञान का प्रकाश लोकालोक को प्रकाशित करता है। दीपक, बिजली, सूर्य, चन्द्र सबका प्रकाश नाशवान है, अस्थाई है। सूर्य रात्रि को छिप जाता है तो चन्द्रमा दिन में प्रकाश नहीं देता। दीपक हवा के झोंके से बुझ जाता है तो विद्युत संचार के बंद होने पर सर्वत्र अंधेरा छा जाता है। एक नेत्रहीन व्यक्ति के लिये हजारों सूर्य, चन्द्र का प्रकाश भी व्यर्थ है। ज्ञान अंधकार का नाश करता है, प्रकाश को फैलाता है, शान्ति प्रदान करता है, क्रोध को नष्ट करता है, धर्म का विस्तार करता है साथ में पापों को भी नष्ट करता है।

— राजीव नेपालिया (माथुर)

राजीव नेपालिया

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