मधुगीति : मन ज्ञात है अज्ञात को
मन ज्ञात है अज्ञात को, अज्ञात ना कुछ ज्ञात को; चलता है पर अज्ञात सा, रचता जगत अनजान सा !
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Read Moreअनन्त राम को बाकी रुपया तो मैं अदा कर चुका था, सात सौ उसका बाकी रह गया था। जब मिलनी
Read Moreओ३म् श्रीकृष्ण योगेश्वर थे, महात्मा थे, महावीर और धर्मात्मा थे। महाभारत में उनके इसी स्वरूप के दर्शन होते हैं। यद्यपि
Read Moreछन्न पकैया, छन्न पकैया, कल की पीड़ित नारी, कितनी है खुश आज ओढ़कर, दुहरी ज़िम्मेदारी। छन्न पकैया, छन्न पकैया,
Read Moreटूटी-फूटी जिन्दगी, अपनी है जादाद। मालिक ने हमसे किया, कभी नहीं संवाद।। मार रहे धनवान हैं, निर्धन को अब लात।
Read More[1] महक फूलो से उठती है पिरोए ख्वाब बैठे हैं , अजब की आरजू उनकी सजोए ख्वाब बैठे हैं/ गजब
Read Moreमुस्कुराहट मे छुपी क्यों दिखती कभी तन्हाई भी | मुस्कुराना बस इक रस्म-भर तो नहीं होता | ना बाँधो सब्र
Read Moreजिन्दगी की पुकार को सुनता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे जमाने में कुछ है ही नहीं उदासी और उबासी
Read Moreहवा निगोड़ी छेड़ती , नरंम लता शरमाय । मन-ही-मन मुसकाय कें तरु से लिपटी जाय ।। *********************************************** नर्म पाव से
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