सामाजिक

औकात भूलते जा रहे काले अंग्रेज

            दुनिया भर में भगवान की सर्वोत्कृष्ट कृति है तो वह है मनुष्य। ईश्वर ने मनुष्य के रूप में अवतार लेकर जगत का कल्याण किया है और दुष्टों का संहार कर धर्म की स्थापना की। पूर्णावतार, अंशावतार, लीलावतार आदि के रूप में भगवान की लीलाओं से शास्त्र और पुराण भरे हुए हैं। इसके अलावा कई दैवीय कार्य भगवान मनुष्यों के माध्यम से पूर्ण करवाता है। इस दृष्टि से मनुष्य पृथ्वी पर देवता का प्रतिनिधि है और उसका अंश भी।

            मनुष्य के लिए जीवनचर्या की अपनी सुनिर्धारित आचार संहिता है जिस पर चलकर पुरुषार्थ चतुष्टय यानि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है और जीवन यात्रा पूर्ण कर अगले मुकाम के लिए प्रस्थान कर जाता है।

            मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक सारी गतिविधियों के बारे में वेदों और धर्म शास्त्रों में सटीक एवं साफ-साफ निर्देश दिया हुआ है।

            जीवन निर्वाह की आदर्श आधारशिला पर चलकर मनुष्य अपने जीवन को धन्य और इतिहास में अमिट पहचान कायम कर सकता है लेकिन ऐसा वे बिरले ही कर सकते हैं जो सेवाव्रती हों तथा जगत के उत्थान के लिए पैदा हुए हो।

            इतिहास उन्हीं का बनता है जो परोपकार और सेवा का ज़ज़्बा लेकर जीवन जीते हो। उनका नहीं जो पद, प्रतिष्ठा, धनसंग्रह और व्यभिचार के साथ ऐशो आराम को ही सर्वस्व मानकर डूबे रहते हैं।

            दुनिया में दो तरह के व्यक्ति होते हैं। एक वे हैं जिनकी वजह से उनका पद, परिवेश गौरवान्वित होता है। ऐसे व्यक्तियों का अपना निजी कद बहुत ऊँचाइयों पर होता है। इनके बारे में लोग स्वीकारते भी हैं ये बहुत अच्छे आदमी हैं और इन्हें इन्हीं के अनुरूप पद या स्थान मिला है।

            कइयों के बारे में तो लोग यहां तक कहते हैं कि इन्हें वर्तमान से भी ऊँचा पद मिलना चाहिए, ये उसके हकदार हैं। दूसरे वे हैं जिनका अपना कोई कद नहीं होता बल्कि पूर्वजन्म के किन्ही अच्छे कर्मों या औरों की दया के फलस्वरूप अच्छे ओहदों पर जा बैठे हैं अथवा अच्छा धंधा कर रहे हैं।

            ऐसे लोगों की संख्या कोई कम नहीं है जिन्हें देखकर हर कोई सहसा यही कह उठता है कि कि अमुक आदमी इस पद पर कैसे बैठ गया या इसमें कौड़ी की काबिलियत तो है नहीं और पद मिल गया बड़ा।  ऐसे में कितनी ही ऊँची कुर्सी प्राप्त क्यों न हो जाए, कोई भी यह स्वीकार करने को तैयार न होगा कि इसके पीछे उनका ज्ञान और परिश्रम है।

            बड़े-बड़े राजनेता, अफसर और बिजनैसमेन हमें ऐसे मिल जाएंगे जिनके जीवन को देखकर लोग यह कहते नहीं चूकते कि पहले जन्म के किसी पुण्य का लाभ मिल रहा है वरना यह ओहदा उनके बस का नहीं है, न ये उसके लायक हैं।

            एक औसत आदमी अपनी जिन्दगी में भारतीय और प्रादेशिक प्रशासनिक सेवाओं, पुलिस सेवाओं से लेकर विभिन्न प्रकार की सेवाओं व ब्राण्डों के अनुरूप लहलहाने वाली खूब सारी फसलों को देखता है और उसे अहसास होता है कि इन सेवाओं में कितने ही खरपतवारी और अहंकारी सेवादार होते हैं जिन्हें देखकर घृणा, क्रोध और शर्म महसूस होती है और कइयों को देखकर तो लगता है कि रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार में रमे हुए इन लोगों के कर्मों को सेवा के दायरे में कैसे रखा जा सकता है।

            कई बार हमारे आस-पास और साथ वाले तथा सम्पर्कितों और जानकारों में ऐसे-ऐसे अहंकारी और शोषक लोग बड़े-बड़े ओहदों पर विराजमान हैं जिन्हें देखकर लगता कि भगवान ने इन्हें क्या देखकर इंसान बनाया है, जबकि मानवता का एकाध गुण भी इनके बीज में कहीं नज़र नहीं आता। बल्कि लगता है कि किसी असुर लोक से धकियाये हुए इन लोगों को कलियुग ने अपने संगी-साथी के रूप में किसी न किसी नौकरी पर बिठा दिया है ताकि काले अंग्रेजों का पूरा-पूरा व्यवहार करते हुए लोगों को पक्का अहसास कराते रहें कि आखिर हम सभी घोर कलियुग में जी रहे हैं जहाँ आदमी एक-दूसरे को खा रहा है।

            खाने का अर्थ कच्चा चबाने से नहीं है बल्कि किसी काम के लिए रिश्वत और भ्रष्टाचार में लिप्त रहना एक तरह से आदमी खाने के बराबर ही है क्योंकि परिश्रम की जिस कमाई से किसी व्यक्ति का पोषण होता है, खून बनता है, शरीर पुष्ट होता है, उसी पैसे को ये रिश्वत के रूप में खौंस कर अपने पेट और पिटारे भर रहे हैं। यह प्रकारान्तर से इंसान को खाने से कम नहीं।

            हमने अब तक कितने ही बड़े ओहदे वालों को देखा है लेकिन इनमें पद के अनुरूप योग्यता और व्यक्तित्व वाले कितने लोग दिखते हैं, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। कई बड़े-बड़े ओहदेदारों को चोर-डकैतों, लूटेरों, झूठों, शोषकों और उन्मुक्त भोग-विलास के लिए मानवीय मूल्यों को रौंदते हुए देखा गया है। बीते युगों के असुरों से इनकी तुलना करें तो हम यह देखकर आश्चर्य में पड़ जाएंगे कि आज के ये राक्षस उन पुराने वालों से कई गुना ज्यादा घातक हैं। इनसे तो वे लाख दर्जे अच्छे हुआ करते थे, आखिर कुछ तो सिद्धान्त वे पालते ही थे। और ये वर्तमान के असुर सिद्धान्तहीन, नरभक्षी एवं धूर्त-मक्कार।

            पूर्व जन्मों के किसी पुण्य के बूते बड़े-बड़े ओहदे पा चुके लोगों में से कुछ ही ऐसे होते हैं जिन्हें अपने पद का तनिक भी घमण्ड नहीं होता। इसके अलावा जीवन के संघर्षों में से तपकर निकले लोग यथार्थ में असली जिन्दगी जीते हैं और अहंकार लेश मात्र भी नहीं रहता।

            इनकी बजाय कितने ही लोग ऐसे हैं जिन्हें किसी भी प्रकार की प्रतिभा न होते हुए भी पद या प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है। इनमें अनुकम्पा के रास्ते सरकारी कुर्सी पर काबिज होने वालों की भी कोई कमी नहीं है। ऐसे में इनका भारीपन कहीं पलायन कर जाता है और अपने पद तथा पद से प्राप्त होने वाले उचित-अनुचित लाभों को ही ये जीवन का चरम और अंतिम सत्य मानने लगते हैं।

            खूब सारे कुर्सीनशीन नौकरशाहों का व्यवहार हिंसक जानवरों से भी गया-बीता देखा गया है। कुत्तों की तरह भौंकते हुए अपने मातहतों पर ऐसे लपकते, झपटते और काटते हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता। इनमें सारे क्रूर और जंगली जानवरों के लक्षण आदर सहित देखे जा सकते हैं।

            प्रलोभनों और लोभ के गलियारों में भटकते हुए ये मकड़ी की मानिन्द अपने भ्रमावरण को ही दुनिया मान लेते हैं। इन्हीं लोगों के कारण आम जनमानस में सरकारी जँवाइयों और प्राइवेट घर जँवाइयों से लेकर नौकर-चाकरों की तरह समर्पित होकर जुटे रहने वालों में यह धारणा घर कर गई है कि जो तनख्वाह मिल रही है वह उनका अधिकार है, एक्स्ट्रा इंकम पाना उनकी मेहनत का परिणाम है।

            असल में आदमी पद, प्रतिष्ठा या समृद्धि से बड़ा नहीं होता। पांच साला पट्टा मिल जाएया फिर साठ-पैंसठ साला परवाना। फिर पद बमुश्किल 30-40 साल का ही है, समृद्धि भी कुछ समय की है और प्रतिष्ठा का कोई भरोसा नहीं। अधिकतर देखा जाता है कि व्यक्ति का कद पद से बौना होता जा रहा है और आदमी अपनी कुर्सी के मुकाबले छोटा और छोटा।

            पदीय दंभ में आज जो लोग इतरा रहे हो उनसे कोई कहे कि एक बार आत्मचिन्तन कर लें कि पद को उनकी जिन्दगी से खत्म कर दिया जाए तो वे क्या है? शायद इसका जवाब शून्य ही होगा। कितने ही ऐसे रिटायर हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी अफसरी बजायी और जमकर कमाई की। आज ऐसे लोगों की तरफ देखना तक कोई पसन्द नहीं करता। उल्टे लोग जी भर कर कोसते हुए गालियां बकते हुए इनका अपमान करते रहते हैं।

            आज जिन अफसरों और राजनेताओं में अहं घर कर गया है उन्हें कोई कहे कि कोई दूसरा धंधा करके दिखा दो तो शायद पान की गुमटी तक नहीं चला सकें। और तो और कोई भीख तक न दे।

            जीवन संघर्ष के दौर में लोकप्रिय वही है जिसे जनता का हृदय स्वीकारता है। कई लोग ऐसे हैं जिनकी नौकरी को अलग करके देखें तो उनका खुद का अपना कोई वजूद कहीं नज़र नहीं आता।

            ऐसे में इन्हें कैसे कहा जा सकता है प्रतिष्ठित और लोकप्रिय। किसी प्रशासनिक अफसर को देखें और चिंतन करें कि अफसरी के लबादे को उतारने के बाद वह कितनी डिग्री का आदमी रह जाएगा। रंगीन बत्तियां न हों तो लोग साईट तक न दें, नमस्कार करने की बात तो बहुत दूर है।

            अफसरी और राजनीति का लबादा ओढ़े आदमी दोहरे-तिहरे बहुरूपिया चरित्र में जीते हैं और इस वजह से उनकी आत्मा मूल आत्मसत्ता से दूरियां बना लेती है।

            खूब सारे ऐसे देखे जाते हैं जो अपने आकाओं के इशारों पर पालतु और फालतु कुत्तों की तरह वे सारे काम करते रहते हैं जिन्हें पद और इंसान की गरिमा के खिलाफ और अधर्म माना गया है। पर पैसों, जमीन-जायदाद और माल-मलाईदार पदों तथा टकसालों का दोहन करने के लिए षोडशांग और सर्वस्व समर्पण के साथ सक कुछ करने और करवाने के लिए हर क्षण प्रस्तुत रहा करते हैं। लानत है ऐसे लोगों को।

            हम सभी को आत्मचिन्तन करना चाहिए कि पद, प्रतिष्ठा, अफसरी, सत्ता और कुर्सी की बेजान बैसाखियों के सहारे अपना कद ऊँचा नहीं कर सकते। इसके लिए जरूरी है खुद के व्यक्तित्व को निखारना, डुप्लीकेट लाईफ का परित्याग और मानवीय संवेदनाओं को आत्मसात करते हुए जीना। अन्यथा बेजान बैसाखियों का सहारा हटते ही धड़ाम से लुढ़क जाने और लकवा हो जाने का खतरा हमेशा बरकरार है।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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