वार्तालाप सत्तर के आस-पास
कितनी जिद्दी हो चले हो तुम आजकल मेरी तो कोई बात नहीं मानते, सुबह सवेरे ये सारे खिड़की दरवाजे खोल
Read Moreकितनी जिद्दी हो चले हो तुम आजकल मेरी तो कोई बात नहीं मानते, सुबह सवेरे ये सारे खिड़की दरवाजे खोल
Read Moreहम न सच के करीब हैं, न सच कहना चाहते हैं, सच सुनना तो पसंद नहीं करते ! यही आग्रही
Read Moreलोग कहते हैं और यहाँ-वहाँ करते हैं मिलकर तय करते हैं फिर भी सन्नाटा है नहीं कोई आहट है, परंतु
Read Moreलोढ़ती सरसों, देखा उसे मैंने- महेंद्र बाबू के ड्योढ़ी पर आज नहीं, कल-परसों, लोढ़ती सरसों । ××××× दिवस फ़ाग अँधियारा,
Read Moreयह सच है कि हमारे दाम्पत्य जीवन में सब कुछ ठीक नहीं है, हम नदी के दो छोर हैं उनके
Read Moreक्यों! आज व्यथा भारी है तुम पर क्या रावण छल के अवशेष दिखे फिर! तू बोल रूद्राक्षी!तू
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